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Ramayani Sadhna Satsang Bhag 22
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1146))
*रामायणी साधना सत्संग*
*अयोध्या कांड भाग -२२ (22)*
*श्री भरत जी की अयोध्या वापसी श्री दशरथ जी की अंत्येष्टि एवं श्री भरत जी का राममिलन के लिए प्रस्थान*
इस प्रकार से बेटा, इस प्रकार से मेरे राम और सीता की सेवा करना, कि उन्हें कभी भूल से भी अयोध्या की याद ना आए । जहां रहे वही अयोध्या स्थापित कर देना । उन्हें कहीं भूल से भी हमारी याद ना आए, या अयोध्या की याद ना आए । हर वक्त मीठा बोलना, मुस्कुराते रहना, कभी सेवा करते हुए रोना नहीं, मानो मां सुमित्रा यह हमें बोध दे रही है लक्ष्मण के माध्यम से, की एक सेवक को, एक परमात्मा के नौकर को किस प्रकार का होना चाहिए ?
आइए भक्तजनों थोड़ा और आगे बढ़ते हैं अब । यह तो मां सुमित्रा द्वारा दी गई उपासना की शिक्षा थी लक्ष्मण को । आशीर्वाद लेकर चले गए ।
आज भरत जी लौट आए हैं । ननिहाल गए हुए थे, लौट आए हैं । उनकी साधना आरंभ होती है । उनकी साधना का शुभारंभ तो हो गया, जब व्यक्ति को विरोध आने लग जाए, डांट डपट पड़ने लग जाए, तो समझना चाहिए कि साधना का शुभारंभ जो है वह हो गया है । कौशल्या से डांट पड़ी । उसके बाद मां की गोद मिली, मानो मां ने आशीर्वाद दे दिए, ज्ञान ने आशीर्वाद दे दिए और क्या चाहिए ? भरत जी महाराज ज्ञानी है, कर्मयोगी भी है । लेकिन उन्होंने साधना का मार्ग ना ज्ञान ही चुना है ना कर्मयोग ही चुना है । तो फिर क्या चुना है ? आइए देखते हैं।
साधना का शुभारंभ तो कौशल्या की डांट से ही आरंभ हो गया । बेचारा रो रहा है, बिलख रहा है । अनेक सारी ज्ञान की बातें कहीं है ।
मैं भागीदार नहीं हूं ।
मैं कभी नहीं चाहता, मैं ना ही चाहूंगा कभी कि मुझे यह राज्य मिले । मेरा इसमें कोई भाग नहीं है, कोई हिस्सा नहीं है । मेरा इसमें किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं है । मेरी यह योजना नहीं है । यह मां को वह स्पष्ट कर देता है, और मां उसे अपनी गोद में बिठाकर बहुत पुचपुच-पुचपुच प्यार करती है, जैसे मां कौशल्या को करना चाहिए था, वैसा ही उसने किया ।
अंत्येष्टि हो गई है । भरत जी महाराज अपना निर्णय सबको सुना देते हैं । अयोध्या के राजा राम ही हैं, राम ही होंगे । आप कभी यह सोचो कि मैं कभी राजा बन जाऊंगा, या राजा हूं, तो यह आपकी भूल है । महाराज मैं कभी राजा नहीं था, और ना ही मैंने कभी अयोध्या का राजा बनना है । इसके राजा राम ही है, और वही राजा रहेंगे ।
यदि आप मेरे ऊपर दयालु हो, कृपालु हो, महाराज आपने मेरी भूल को क्षमा कर दिया है, सब को कहते हैं, तो चलो मेरे साथ । सभी राजा राम को वापस बुला कर लाते हैं। वही है राजा, तो वापिस जाने की तैयारी जो है वह उनको करनी चाहिए । वापिस लाने की तैयारी, कैसे उनको वापस लाना है । भरत जी महाराज की साधना, यात्रा आरंभ होती है । साधना तो पहले से आरंभ हो गई है, लेकिन यात्रा यहां से आरंभ होती है ।
महर्षि वशिष्ठ, रानियां इत्यादि तो रथ पर चले गए हैं । लक्ष्य तो एक ही है ना भक्तजनों सब का, अयोध्यावासी, राजघराने के लोग, जितने भी जा रहे हैं, लक्ष्य तो सबका एक ही है राममिलन, राम के दर्शन ।
यात्रा भिन्न-भिन्न ढंगों से की जा सकती है। महर्षि वशिष्ठ रानियां इत्यादि रथ पर बैठ जाती है । मानो यह लोग वह हैं जो धर्माचरण करके तो प्रभु की प्राप्ति करना चाहते हैं । धर्माचरण करके, रथ धर्म का प्रतीक होता है, यह धर्म के अनुकूल चल कर, धर्म के अनुसार चलकर यह प्रभु राम के दर्शन करना चाहते हैं, इनको रथ पर बिठा दिया जाता है ।
कुछ लोग घोड़ों पर सवार हो जाते हैं ।
घोड़े तो बड़े मुंहजोर होते हैं । यदि घोड़े की लगाम आपके हाथ में ठीक ढंग से नहीं है, उनकी लगाम पर आपका नियंत्रण नहीं है, तो वह आपको कहीं ना कहीं गड्ढे में जाकर गिरा देंगे । मानो यह योग के साधक हैं जो घोड़ों पर सवार होकर चले हैं ।
कुछ लोग हाथी पर भी बैठ गए हैं । जो ज्ञान मार्गी है, वह हाथी पर, हाथी ज्ञान का प्रतीक है, वह हाथी पर बैठकर भी चल पड़े हैं । भरत जी महाराज इन तीनों साधनों में से किसी को नहीं अपनाते । मेरे पास कोई साधन नहीं है । वाल्मीकि रामायण में तो वर्णन आया कि वह रथ पर बैठे हैं, रथ पर गए हैं वह । रामचरितमानस में भी इस प्रकार का वर्णन आता है, पर कब बैठते हैं जब मां कौशल्या कहती है,
“भरत यदि तू रथ पर नहीं बैठेगा तो इतने सारे लोग जो साथ जा रहे हैं इनको भी पैदल चलना पड़ेगा और इसमें बुजुर्ग भी है, महिलाएं भी हैं, यह इतना रास्ता पैदल कैसे चलेंगे । मेहरबानी करके मेरी आज्ञा का पालन कर, रथ पर बैठ जा ।"
मां को प्रसन्न करने के लिए, उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए, भरत रथ में बैठ जाते हैं, मन नहीं है । जिस लंबी दूरी को मेरे राम ने पांव से तय किया है, मेरा फर्ज बनता है कि मैं उसे मस्तक द्वारा तय करूं । पांव द्वारा नहीं, रथ द्वारा नहीं, या किसी और साधन द्वारा नहीं । इन तीनों को नहीं अपनाया । साधन होते हुए भी साधन को नहीं अपनाया । एक नि:साधनता की स्थिति उनके अंदर आ गई है, इसे शरणागति कहते हैं, इसे समर्पण कहते हैं ।
भरत जी महाराज ने इस मार्ग को बनाया है, शरणागति का मार्ग अपनाया है, समर्पण का मार्ग अपनाया है ।
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