Ramayani Sadhna Satsang Bhag -15

8 months ago
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परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1139))

रामायणी साधना सत्संग
अयोध्या कांड भाग-१५
श्री राम का वन गमन

एक और अत्यधिक प्रेम है, दूसरी और उच्च कोटि का त्याग है । अभी आपने यह चित्र देखा ।
भावना से कर्तव्य ऊंचा है,
इस कथन को साक्षात करते हुए प्रभु राम, लक्ष्मण, एवं मातेश्वरी सीता, वन को प्रस्थान कर चुके हैं । यह नौबत क्यों आई है ? जो दिखाई देता है भक्तजनों हर चीज के पीछे तो परमेश्वर का हाथ है । उसकी अपनी रचना है, उसकी अपनी इच्छा है । वह बात थोड़े समय के लिए भूलकर जो दिखाई देता है, जो पढ़ा है, उसके अनुसार यह परिणाम, यह नौबत क्यों आई है ?

यही कहना होगा ना कोई कितना भी धैर्यवान क्यों ना हो, कोई कितना भी
नीतज्ञ क्यों ना हो, कोई कितना भी सदाचारी क्यों ना हो, गुरु भक्त भी क्यों ना हो, विद्वान क्यों ना हो, ज्ञानी क्यों ना हो, धर्माचरण भी करने वाला क्यों ना हो, बहुत कुछ जानने वाला भी हो, सब कुछ जानने पहचानने वाला हो, अनुभवी हो, सब कुछ भी हो, पर यदि कुसंग की घड़ी उसके ऊपर आ जाती है तो वह बच नहीं सकता ।
यह कुसंग थोड़ी देर के लिए अपना रंग, थोड़ी देर के लिए अपना रंग चढ़ाए बिना नहीं रहता । इस कुसंग के कारण ही यह सब कुछ हुआ है । मंथरा के कुसंग ने मां कैकई की बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया है, परिवर्तित कर दिया है, विकृत कर दिया है ।

मां कैकई स्वभाव से इस प्रकार की नहीं । राम को कहीं अधिक प्रेम करती है भरत की अपेक्षा । आज अचानक क्या हो गया है ? आज राम में और भरत में उसे भेद लगने लग गया है । क्यों ? बीच में मंथरा नामक कुसंग आ गया है, और संत महात्मा इस कुसंग को भेद बुद्धि कहते हैं, अविद्या माया कहते है, यह बीच में आ गई है । और इसने आकर दोनों में भेद डालने के लिए, दोनों में पृथकत्व डालने के लिए, अलगत्व डालने के लिए, कुछ ना कुछ छूमंतर कर दिया है ।

दीक्षा दे दी है कैकई को,
अपना अपना ही होता है और पराया पराया ही होता है । कैकई को दीक्षित कर दिया है उसने । इससे पहले, दीक्षित होने से पहले अपना काम तो वह करती जा रही है । जैसे ही वह महल में प्रवेश करती है कैकई सोई हुई है । जाकर बहुत कुछ बताती है उसे । उठ, नहीं तो जिंदगी भर सोई रहेगी, इत्यादि इत्यादि । जैसी महिलाएं बातें करती है वैसे ही उसने भी बात करी । कोई उस वक्त उसके ऊपर भी तो कोई बैठा हुआ है उसको भी चलाने वाला । संभवतया करेंगे चर्चा इस बात की भी । कौन है सूत्रधार इस सब चीज के पीछे ?

मंथरा को कहती है कैकई,
खबरदार यदि इससे आगे बोली तो मैं तेरी जुबान काट लूंगी । मंथरा मन ही मन कहती है यदि मैंने अपनी जुबान तेरे मुख में ना डाल दी, तो मैं मंथरा नहीं, और वहीं उसने किया। अपनी जुबान उसने कैकई के मुख में डाल दी । अब वह मंथरा की वाणी जो है वह बोल रही है । पुन: कहूंगा राजा अश्वपति की पुत्री कैकई स्वभाव से इतनी गंदी नहीं थी, जितनी गंदी हो गई है, मंथरा के कुसंग के कारण । कोई और कारण भी होंगे, पर स्पष्टतया अभी तो यही दिखाई देता है, मंथरा का कुसंग । भक्तजनों आप विश्वास कर सकते हो कैकई जिस वक्त कोप भवन में है, उस वक्त उसने मंथरा के ही कपड़े पहने हुए थे । मानो अपना सब कुछ, कितना रंग चढ़ा दिया अपना । सारे का सारा रंग जो है वह कैकेई के ऊपर चढ़ा दिया ।‌ मन भी रंग दिया, और बुद्धि भी रंग दी, और शरीर भी उसका रंग दिया । अब कौन है बचाने वाला ?

अयोध्या को संतों की नगरी कहा जाता है ।
यूं कहिएगा यदि यह बात सत्य है तो एक असंत मंथरा नामक क्या कर सकता है ? तुलसी दास कहते हैं, नहीं‌ । इस बात की चिंता, इस बात पर कभी ध्यान ना देना की एक असंत क्या कर सकता है ? वह उदाहरण देते हैं पांच बातों के लिए, इनको कभी जिंदगी में छोटा नहीं मानना ।

रोग को कभी छोटा नहीं मानना,
पाप को कभी छोटा नहीं मानना,
अग्नि को कभी छोटा नहीं मानना,
लोभ को कभी छोटा नहीं मानना,
शत्रु को कभी छोटा नहीं मानना
एवं सांप को कभी छोटा, बिच्छू को कभी छोटा नहीं मानना ।
ठीक इसी प्रकार से मंथरा भले ही सारी अयोध्या में एक ही असंत है, पर उसने अपना काम तो करके दिखा दिया । उसने अपनी असंताई जो है वह दिखा दी, कभी ऐसा नहीं मानना ।

आखिर क्या किया है उसने ? पुन: आपको याद दिला दूं,
यह भेद बुद्धि जो है । वह थोड़े समय के लिए, उदाहरणों से स्पष्ट करता हुआ आपकी सेवा में इस प्रकार से कहता हूं ।
जैसे यूं कहें हम -
हम हांसी के हैं, यह दिल्ली के हैं, हम जालंधर के हैं, यह कोलकाता के हैं ।
इसे भेद बुद्धि कहा जाता है ।
हम इनकी सहायता क्यों करें ?
हम इनके साथ क्यों बोले ?
यह बोलें, जिन्हें अपने साथ लाए हुए हैं, वह बोलें इनके साथ । हम तो जो अपने हैं उनके साथ बोलेंगे । यह भेद बुद्धि है । भक्तजनों इनसे कोई फर्क नहीं पड़ता ।

मैं आपको एक बिल्कुल जीवंत उदाहरण इस प्रकार की दे रहा हूं, ताकि यह बात हम सबकी समझ में आ जाए, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता ।
तो परमात्मा का काम है कोई पड़े,
कोई ना पड़े,
किसी के साथ पड़े, किसी के साथ ना पड़े, किसी का बिगाड़े कुछ,
कोई फर्क नहीं पड़ता । यह परमात्मा का काम है यह तो होकर रहेगा ।
आप किसी को ऊंची आवाज दो,
आप किसी को नीची आवाज दो,
किसी को खराब आवाज दो,
इन बातों से कुछ फर्क नहीं पड़ता ।
पर एक बात तो स्पष्ट होनी चाहिए भाई आपके अंदर इस वक्त मंथरा सक्रिय है, और कुछ ना सही । इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता । यह तो परमात्मा का काम है, इसे कोई रोक नहीं सकता । कोई माई का लाल नहीं रोक सकता । यह तो चलता रहेगा ।

लेकिन आपको यह बात स्पष्ट होनी चाहिए, यह करने वाले को, सोच-विचार करने वाले को यह बात स्पष्ट होनी चाहिए,
महाराज आपके हृदय में इस वक्त मंथरा बैठी हुई है आकर । भेद बुद्धि बैठी हुई है आकर । इससे बचना है । अविद्या माया इसे कहते हैं, भक्तजनों इसका काम ही यही है ।

शूर्पणखा का भी यही काम है । वह सीता और राम को अलग करना चाहती है । रावण में भी यह बुद्धि स्वभावतया पाई जाती है । इसलिए वह सीता को चुरा कर राम से अलग करके ले जाता है । मंथरा में भी यह बुद्धि प्रचुर मात्रा में पाई जाती है । कैकई संस्कार, यदि यूं कहिएगा अपने पिता के लेकर आई है । रात को करेंगे भक्तजनों यह बात ।

कैकई की मां भी बिल्कुल कैकई की तरह ही थी । तो है ना बात ठीक ।
जैसी मां, वैसी बेटी ।
जैसा पिता, वैसा पुत्र ।
मानो कुछ ना कुछ संस्कार, कुछ ना कुछ संस्कारों का भाग तो इनसे हमें मिलता ही
है । अध्यापक से मिलता है, गुरु से मिलता है, संगी साथियों से मिलता है, तो माता पिता से भी संस्कार तो मिलते ही हैं ।

कैकई के पिता तो राजा अश्वपति है,
जिससे संत महात्मा भी ब्रह्मविद्या सीखने के लिए जाते हैं । उपनिषदों में कथा आती है इस प्रकार की । लेकिन यह कुसंस्कार कहां से आया होगा ? स्पष्ट है कहीं ना कहीं से यह कुसंस्कार तो इस हृदय में आया ही है, पड़ा ही होगा, तभी यह जागृत हुआ है ।
और तभी यह फलीभूत हुआ है । तभी इसने यह कुकर्म, यह उसने अनर्थ करके दिखाया है । कहते हैं कुसंस्कारों से सदा हर एक को डर कर रहना चाहिए ।

इसलिए चित्त की महिमा गाई जाती है । इसीलिए कहते हैं भाई जब तक चित्त की शुद्धि नहीं होती, तब तक साधना जो है वह ऐसे ना समझो कि वह सफल हो गई है । चित्त वृत्ति निरोध महर्षि पतंजलि, इस पर बल देते हैं । चित्त की वृत्तियां अपनी निरोध करो । इसीलिए कहा जाता है इसी से साधना सफल होती है । कहीं ना कहीं कैकई के अंतःकरण में इस प्रकार का कुसंस्कार पड़ा हुआ है, जिसका फल आज हमें देखने को मिल रहा है । यह कुसंस्कार अवसर ढूंढते हैं । जैसे ही इनको अवसर मिलता है, आपको बहुत ऊंचाई पर गए हुए भी नीचे गिरा कर रख देते हैं ।‌ इसी को वासना कहा जाता है । इसी को कुसंस्कार कहिएगा, जो मर्जी कहिएगा ।

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