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Ramayani Sadhna Satsang Bhag-10
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1135))
*रामायणी साधना सत्संग*
*बालकांड भाग- १०*
*विषयासक्त बुद्धि का त्याग एवं शिव धनुष*
*बालकांड की समाप्ति के साथ ही एक साधक की साधना भी संपन्न होती है ।भक्ति मार्ग में ताटिका को दुराशा कहा जाता है । ज्ञानी ताटिका को अविद्या कहते हैं । ताटिका का वध कर दिया है भगवान ने एक ही तीर से, और उसे अपने अंदर समा लिया है । साधक जब साधना आरंभ करता है, तो भगवान भी यहां संकेत देते हैं -*
*अपनी साधना के माध्यम से परमेश्वर के अतिरिक्त किसी दूसरे से आशा ना रखिएगा। यहां से साधना का शुभारंभ होता है ।*
*सर्वप्रथम इसे ही मारा है । यदि व्यक्ति परमात्मा से भी आशा रखता है और संसार से भी आशा रखता है, तो यह स्पष्ट है कि उसे परमात्मा के प्रति अभी विश्वास ही नहीं हुआ । वह साधना के मार्ग का पथिक नहीं है । यदि संसार से आशा नहीं है, केवल परमेश्वर से ही आशा है, तभी तो भक्ति मार्गी कहते हैं ना परमेश्वर से भक्ति बाद में,*
*ध्यान दें जिस मार्ग के आप अनुयाई हो, भक्ति मार्ग में परमेश्वर से मांगने में कभी संकोच नहीं करना । जी भर कर मांगिएगा। पर फिर उसी से मांगिएगा, संसार से नहीं । वह तभी देगा जब संसार से आप मांगना बंद करोगे । यदि संसार से भी मांगते रहोगे और परमात्मा से भी मांगते रहोगे, तो मानो अभी साधना ने ताटिका को मारा नहीं है । वह ताटिका जीवित है अभी और उसके जीते जी साधना आगे बढ़ेगी नहीं ।*
साधक आगे बढ़ते हैं ताटिका को मारकर। अभी जनकपुरी नहीं पहुंचे, बाद में पहुंचेंगेऔ। पहले अहिल्या मिली है । इसका विस्तारपूर्वक वर्णन तो करेंगे रात्रि की बैठक में । इस वक्त मात्र इतना,
अहिल्या बुद्धि है, और उसकी बुद्धि विषयासक्त होने के कारण जड़ हो गई है । स्वामी जी महाराज फरमाते हैं, काष्ठ समान हो गई है अहिल्या । रामचरितमानस कहता है वह पत्थर की बन गई है, जड़ हो गई है, जड़ बुद्धि हो गई है । विषयों के प्रति आसक्ति, स्वाद ।
स्वादु भोग है, किसी भी प्रकार का स्वाद है, उसे ही भोग कहा जाता है । इसकी जब तक जड़ता दूर नहीं होती, यह अहिल्या जब तक पुन: चेतन नहीं होती, तब तक साधना और आगे नहीं बढ़ पाएगी । दूसरा पड़ाव है जो संसार, जो विषयों के प्रति आपकी विषयासक्ति है, विषयों के प्रति आकर्षण है, उसे खत्म कीजिएगा । भगवान ने उसको चेतन कर दिया । अब बुद्धि जड़ नहीं है । साधक की बुद्धि जो अहिल्या बनी हुई थी, जो जड़ बनी हुई थी, भगवान ने, एक साधक ने उसका उद्धार कर दिया ।
आगे बढ़ते हैं । उसके उद्धार के बाद जब विषयों के प्रति आकर्षण, संसार के प्रति आकर्षण खत्म हो जाता है, नि:स्सार लगने लग जाता है संसार, तो साधना बड़ी आसानी से आगे बढ़ जाएगी । एक और मुख्य बाधा अभी बाकी रहती है । उसके बाद तो कोई विशेष बात नहीं रह जाती ।
जैसे ही साधक जनकपुरी में पहुंचते हैं क्या देखते हैं ? वहां एक अहंकार रूपी धनुष पड़ा हुआ है । वह अभी बाकी है । इसको तोड़ना पड़ेगा, तभी जाकर सीता, शांति रूपी सीता मिलने जा रही है, इससे पहले नहीं । जब तक अहंकार तनिक भी बना रहता है, थोड़ा भी बना रहता है, तब तक परम शांति की प्राप्ति नहीं हुआ करती । अभी एक major hurdle बाकी है । यह बहुत बड़ी समस्या एक साधक के सामने है, “अहंकार” ।
धनुष, कहते हैं यह धनुष भगवान शिव ने दिया था । देखे किस काम के लिए दिया होगा । तनिक सोच विचार करें । वह धनुष कैसा, जिसके साथ बाण नहीं । भगवान शिव ने दिया है । धनुष ही दिया है इसके साथ बाण नहीं दिया तो कोई अवश्य इसके पीछे कोई भेद होगा । भगवान की रचना किस प्रकार की है, तनिक सोच-विचार करके देखें । इसको चढ़ाना नहीं है, शर्त है इसको तोड़ना है । धनुष को तो चढ़ाया जाता है । उसके ऊपर बाण रखा जाता है। उसको ऐसे मारा जाता है । लेकिन यहां शर्त है, इसको तोड़ना है । स्पष्ट है यह अहंकार है, और इसका टूटना ही जो है वह अति आवश्यक है । इसे चढ़ाने की आवश्यकता नहीं है । इसे टूटना चाहिए ।
भगवान शिव से इसी धनुष ने एक बार कहा था-
भगवान के पास जो भी रहता है वह चेतन रहता है, वह जड़ नहीं रहता । धनुष तो बातचीत करता है । भगवान शिव से कहा- महाराज क्या है मेरा जीवन, मुझे बार-बार बंधना पड़ता है । *भगवान शिव ने आशीर्वाद दिया, जाओ । अब जहां जा रहे हो वहां एक ही बार चढ़ना पड़ेगा, उसके बाद फिर कभी बंधना नहीं पड़ेगा । एक बार टूट जाओगे तो फिर कोई बांध नहीं सकेगा आपको । आप हमेशा के लिए मुक्त हो जाओगे । और इसी शर्त पर भगवान शिव ने वह धनुष दे दिया
है ।*
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