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Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1045))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५६२(562)*
*राजा जनक*
*भाग-२*
प्रकृति का क्या नियम है, सब कुछ पाकर जो भगवान को नहीं पाता, जो भगवान से जुड़ा नहीं रहता, यह प्रकृति का नियम है, प्रकृति उसे नीचे गिराकर रहती है ।
राजा जनक के साथ ऐसा नहीं हुआ ।क्योंकि उन्होंने ऐसी गलती की ही नहीं । वह हमेशा परमात्मा के साथ जुड़े रहे । हमें तनिक थोड़ा सा मिलता है, तो हम परमात्मा की जरूरत महसूस करना बंद कर देते हैं, अब हमें परमात्मा की जरूरत नहीं । राजा जनक के जीवन में ऐसा नहीं आया । वह हमेशा परमात्मा से जुड़े रहे हैं, और उनके जुड़ने में नित्य वृद्धि होती रही है । इस वक्त नौबत यह है उन्हें सर्वत्र राम ही राम दिखाई देते हैं । यह प्रगति के चिन्ह हैं । यह उन्नति के चिन्ह है । यह पराकाष्ठा के चिन्ह हैं । हमें संसार दिखाई देता है ।
एक अनजान आदमी खेत में चला जाता है तो उसे घास दिखाई देता है । लेकिन किसान जो समझदार है, वह जाता है तो उसे घास दिखाई नहीं देता । उसे दिखाई देता है यह गेहूं के पौधे हैं ।
अज्ञानियों को, जैसे हम,
हमें संसार दिखाई देता है,
लेकिन जो ज्ञानी है, जो वीतराग है, जो राज ऋषि हैं, जो मनीषी हैं, जो आप्त पुरुष हैं, जो हर वक्त परमात्मा के साथ जुड़े हुए हैं, उन्हें संसार, संसार नहीं दिखाई देता । उन्हें वह भगवान दिखाई देता है । यह संसार भगवान का साकार रूप है, परमात्मा का साकार रूप । दृष्टि बदल जाती है । भक्ति में समर्थ है, आपको एक दिन पहले भी अर्ज की थी, भक्ति ही एक ऐसी है जो बहुत कुछ परिवर्तन कर सकती है । ज्ञान में यह समर्थ नहीं । ज्ञान तो सिर्फ प्रकाशित करता है । जो असली चीज है वह दर्शा सकता है । उदाहरण दी थी ।
यह बोध कि यह रस्सी है या सांप;
आप मामूली सा प्रकाश करते हैं तो यह झट से पता लग जाता है, कि यह रस्सी है या सांप । यह ज्ञान का काम है प्रकाशित करना। जो चीज वस्तुतः है उसे भी दिखा देता है, लेकिन परिवर्तित नहीं कर सकता । परिवर्तन केवल भक्ति कर सकती है । आपका मन भक्ति बदल सकती है, आपकी बुद्धि भक्ति बदल सकती है, आपका जीवन भक्ति बदल सकती है, आपका स्वभाव भक्ति बदल सकती है, यह सब कामना के चिन्ह हैं ।
आप बंधे हुए हैं, आपको को खोल सकती है, परिवर्तन ला सकती है आपके जीवन में। आपको जीवन मुक्त बना सकती है भक्ति । परिवर्तन करने का, बदलने का, भक्ति में ही सामर्थ्य हैं ।
राजा जनक के लिए मन में प्रश्न उठता है कि इतना कुछ होने के बावजूद भी आपने आत्मा को कैसे जीता । आज शब्द प्रयोग किए हैं स्वामी जी महाराज ने आपने आत्मा का साक्षात्कार कैसे कर लिया, आपने आत्मा को कैसे जान लिया, आप निर्द्वंद कैसे हो गए, आप मोक्ष के अधिकारी कैसे बन गए ? इतनी सुख-सुविधाओं में रहते हुए भी । सभी लोग ऐसा नहीं कर सकते । सामान्यता इन्हें विरोधी माना जाता है । सुख सुविधा बहुत विरोधी है आत्मिक उन्नति में। लेकिन राजा जनक ने यह सिद्ध कर दिया कि नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है । विरोधी है तो सिर्फ मन विरोधी है, और कोई नहीं । मन आपका सध गया, मन को आपने सिधा लिया, तो फिर विरोध इस संसार में कोई उत्पन्न नहीं कर सकता आपके लिए । आपके सारे रास्ते खुले हैं फिर ।
राजा जनक ने आज बहुत सुंदर बातें समझाई हैं । मैंने कभी कुछ अपना माना ही नहीं । मैं तो परमात्मा की नौकरी करता हूं । मैं तो परमात्मा का नौकर हूं । यह जो कुछ भी दिखाई देता है, यह राज पाट इत्यादि इत्यादि, मेरा कुछ नहीं है । मैं तो सिर्फ रहता हूं यहां पर, सब कुछ परमात्मा का समझकर, सब कुछ परमात्मा का दिया हुआ मानकर । ऐसे आदमी को कौन बांध सकता है, कोई नहीं । वह निर्बंध है । बिल्कुल खुला हुआ है । ऐसे को ही मुक्त कहते हो ना, जो बंधा हुआ है वह बंधन में है । ऐसे को ही मुक्त कहा जाता है, जो बंधन में नहीं है । मानो संसार में रहना है, चिपकना किसी के साथ भी नहीं । जितने कर्तव्य दिए हैं परमात्मा ने सब डटकर निभाइएगा ।
नौकरी कर रहे हो, एक व्यक्ति कई कई नौकरियां भी करता है । थोड़ी देर के लिए वहां जाता है, थोड़ी देर के लिए वहां जाता है, थोड़ी देर के लिए वहां जाता है । यूं कहिएगा उस परमात्मा देव ने हम गृहस्थीयों को इसी प्रकार की अनेक नौकरियां दी हुई हैं। कहीं भाई बनाया हुआ है, कहीं पति बनाया हुआ है, कहीं पुत्र बनाया हुआ है, कहीं बैंक का नौकर बनाया हुआ है, कहीं कुछ, कहीं कुछ, कहीं कुछ । अनेक सारी नौकरियां दी हुई है भगवान श्री ने । और ऐसा ही मानकर जो साधक करता है, परमात्मा की दी हुई नौकरी कर रहा हूं, उनका दिया हुआ काम कर रहा हूं, परमात्मा की प्रसन्नता के लिए । मैं वास्तव में सेवा परमात्मा की ही कर रहा हूं, बेशक दिखाई यह दे रहा है मैं सेवा अपने परिवार की कर रहा हूं, पर मैं परमात्मा की सेवा कर रहा हूं। जिसकी बुद्धि में यह बात स्पष्ट हो जाती है वह यहां रहता हुआ जीवनमुक्त, उसको कोई बंधन बांध नहीं सकेगा ।
जहां अपना मान लिया, वहां परमात्मा कहे ना कहे, देवियों सज्जनों वहां बेईमान की मोहर अपने आप लग गई । मेरी चीज पर आप अपना अधिकार जमा रहे हो, तो तनिक सोचो;
आप की नौकरानी की क्या मजाल है कि कोई चीज़ अपनी मान जाए आपके होते हुए, बिल्कुल नहीं ।
लेकिन धन्य है परमात्मा जिसका सब कुछ होता हुआ भी, यह सहन करता है जब आप कहते हो मेरा घर, मेरा पति, मेरा पुत्र, मेरे पत्नी, इत्यादि इत्यादि मेरा, मेरा, मेरा, मैं मैं मैं करते हो, उसके हृदय पर क्या बीती होगी ? लेकिन चुप है वह । जहां यह हो जाता है साधकजनों वही बंधन, वही हथकड़ियां, वहीं बेड़ियां शुरू हो जाती हैं, लग जाती हैं ।
राजा जनक कहते हैं मैंने कभी किसी चीज को अपना माना ही नहीं । मैं तो परमात्मा का नौकर हूं । परमात्मा की नौकरी करता हूं। यह राजपाट मेरा नहीं है । आज स्वामी जी महाराज ने उनके लिए शब्द प्रयोग किया जो एक तापस वापिस आया है, वह तो कहानी बाद की, लेकिन आज उससे पहले ही स्वामी जी महाराज ने शब्द प्रयोग किया है वीतराग । राग रहित वीतराग । राग रहित, आसक्ति रहित, चिपकता किसी से नहीं । शरीर पर परमात्मा के प्रेम का तेल लगाया हुआ है । जो कोई चिपकता है फिसल जाता है । ना वह स्वयं किसी के साथ चिपकता है, ना अपने साथ किसी को चिपकाता है । यह भक्ति के चिन्ह हैं, यह भक्त के चिन्ह हैं । राजा जनक ऐसे ही हैं वीतराग । इस से भी ऊपर की स्थिति को कहा जाता है
“वीतराग द्वेष” राग रहित एवं द्वेष रहित। किसी के प्रति भी कोई द्वेष नहीं, फिर द्वेष नहीं है तो राग भी नहीं है । ऐसे को
“वीतराग द्वेष” कहा जाता है ।
देखा जाए तो राजा जनक वीतराग
द्वेष हैं । कल तो नहीं भक्तजनों परसों करेंगे चर्चा वीतराग की । राजा जनक को वीतराग क्यों कहा जाता है । तो आज यहीं समाप्त करने की इजाजत दें । धन्यवाद ।
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