Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj

11 months ago
2

परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1043))

*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५६० (560)*
*जैसी करनी वैसा फल भाग ६*
*"जैसी करनी वैसा फल;*
*आज नहीं तो निश्चय कल*

कल भी आपसे अर्ज करी थी ।
भक्ति बहुत कुछ बदल कर रख सकती है । ज्ञान चीजों को प्रकाशित करता है ।
ज्ञान प्रकाश है, तो प्रकाश का क्या काम होता है, जहां अंधकार है उसको दूर कर देता है । ज्ञान चीजों को बदल नहीं सकता । ज्ञान और भक्ति में क्या अंतर है ? ज्ञान चीजों को प्रकाशित करता है । जैसी जो चीज है वैसी दर्शाता है ।

जैसे आपको यह शक हुआ कि, पता नहीं यह रस्सी है, या सांप । तो आपने वहां पर कोई दीपक इत्यादि,Torch इत्यादि से प्रकाश किया । तो आपको बोध हो जाता है कि यह रस्सी है या सांप । ज्ञान प्रकाशित करता है । भक्ति में समर्थ है चीजों को बदलने की ।

महर्षि विश्वामित्र ब्राह्मण नहीं थे ।
ऐसी भक्ति की, ऐसा तप किया, जीवन काल में ही क्षत्रिय से ब्राह्मण बन गए,
ब्रह्म ऋषि बन गए ।
भक्ति में समर्थ है, वह बदलती है ।
कहा मैने जीवन में इतनी भक्ति नहीं की,
मैं कुछ बदल सकता । अतएव अपने कर्मों का फल भुगत रहा हूं ।

सुनाते हैं- मित्र पिछले जन्म में मेरी पत्नी गधी थी और मैं कौवा । अपना पिछला जन्म बता रहे हैं । कर्म कहां कहां किस प्रकार से पकड़ते हैं । परमात्मा को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, इन हमारे कर्मों के भुगतान के लिए । मेरी पत्नी पिछले जन्म में गधी थी और मैं कौवा । इस के शरीर पर अनेक जख्म थे । मेरा स्वभाव इस प्रकार का कोई परेशान करने का स्वभाव नहीं था । मैं इसके जख्मों पर चोंच मारता । नित्य यही काम । यह भी इधर-उधर घूमती होती, मैं भी उड़ता उड़ता इसके पास आ जाता । मेरा भोजन भी मिल जाता मुझे और अपने स्वभाव के कारण, स्वभाव के अनुसार चोंच मारता । मेरा स्वभाव ही है चोंच मारना । आज हुआ यूं चोंच इतने जोर से लग गई कि मेरी चोंच इसकी हड्डी में फस गई ।
मेरे लाख प्रयत्न करने पर भी अपनी चोंच खींच ना सका । मेरे हर चोंच मारने से इसे पीड़ा होती थी । होती होगी । ऐसा मैं महसूस करता हूं । आज मेरी चोंच हड्डी में फंसी हुई है । वह निकल नहीं रही । मैंने बहुत कोशिश की । अब इसके पास कोई चारा नहीं । अतएव इसने गंगा जी में प्रवेश जान किया, तो मेरा प्रवेश भी हो गया । क्योंकि मेरी चोंच उसमें फंसी हुई थी ।
मैं भी साथ, हम दोनों गंगा जी में प्रवेश कर गए । गंगा जी में स्नान का फल यह कि इस जन्म में मैं, ब्राह्मण और वह ब्राह्मणी ।

उस जन्म में अपनी चोंच से जो पीड़ा दी थी, वह अब बिना अपनी जुबान से मुझे दे रही है। मेरे किए कर्म का फल मेरे आगे आ रहा है । कर्म सिद्धांत कितना अकाट्य है । साधक जनों इससे बचा नहीं जा सकता, छुटकारा नहीं है ।
मैं चोंच मारकर इसे पीड़ा देता रहा हूं,
अब यह अपनी जुबान से कटु शब्द बोलकर, कठोर शब्द बोलकर, वही पीड़ा मुझे देती है। सो मैं अपने कर्मों का फल भुगत रहा हूं । तुझे इसलिए भुगतना पड़ा तू मेरा मित्र है।

मेरा प्रारब्ध कुछ तेरे साथ जुड़ा हुआ होगा, जो आज तुम्हें एक बार उसकी कटु वाणी, कठोर वाणी सुननी पड़ी ।
मत सोचिएगा, कुछ निशप्रयोजन नहीं है। परमात्मा की हर करनी में इतनी Accuracy है, उसमें गलती की संभावना नहीं ।

आप कई बार कहते हो कर्म तो मेरे हैं, भुगतान तो मुझे होना चाहिए । पर मेरे माता-पिता क्यों suffer कर रहे हैं ।
कैसे बच सकते हैं वह । तेरा प्रारब्ध उनके साथ जुड़ा हुआ होगा । इसलिए उनको भी भुगतान भुगतना पड़ रहा है । परमेश्वर की करनी में कुछ भी निशप्रयोजन नहीं है । सब कुछ Purposefully घटित होता है । There is a definate purpose behind it.

कहीं पत्नी कर्कश है, तो कहीं पति ।
सब चलता है । कहीं पत्नी दुख देने वाली है, तो कहीं पति दुख देने वाले हैं ।
ऐसे दुख देने वाले हैं, ऐसा दुख कि एक ही बार में जिंदगी भर का दुख दे जाते हैं । अपने अपने कर्मों का फल । यह कर्म पीछा नहीं छोड़ता ।

समय तो हो गया है देवियों सज्जनों ।
धृतराष्ट्र जन्म से अंधा है ।
आज इसके साथ ही इस प्रसंग को समाप्त करेंगे । भक्त प्रकाश शुरू हो गया है । साधन प्रकाश खत्म होने के बाद ।
धृतराष्ट्र जन्म से अंधा है ।
सौ पुत्रों की मौत उसने देखी है अपने सामने। दृष्टिहीन होते हुए भी पता है कि मेरे सौ पुत्र मर गए हैं । जिंदगी भर भगवान को भगवान नहीं समझा । कृष्ण को कृष्ण नहीं समझा । आज पानी सिर से निकल गया । जब मिलन हुआ तो कहा -
माधव एक बात बताओ । मैं जन्म से अंधा क्यों हूं । और इन अंधी आंखों ने अपने सौ पुत्रों को अपने सामने मरते हुए, मृत्यु के घाट उतरते हुए देखा है । किस कर्म का फल है।

राजा भी हूं, विडंबना देखिए जन्म से अंधा हूं, लेकिन राजा हूं । निसंतान नहीं, सौ पुत्र
हैं । सौ पुत्रों को अपने सामने मरते हुए देखा है, किस कर्म का फल है ?
भगवान टालमटोल करते हैं । छोड़ो राजन जो होना था सो हो गया । क्या करोगे जानकर ।
नहीं आप सर्व समर्थ हो ।
बुद्धि पलटी, आप सर्वसमर्थ हो । आप मुझे बता सकते हो, दिखा सकते हो, कि यह किस जन्म का फल है ।
ठीक है सिर पर हाथ रखा माधव ने, भगवान श्री कृष्ण ने धृतराष्ट्र के सिर पर हाथ रखा, तो जैसे एक फिल्म चल पड़ती है । Back film चल पड़ी ।

एक जन्म, 2,4,6,10,15,20, 25,50 जन्म निकलते जा रहे हैं ।
100वा जन्म, कर्म पीछा नहीं छोड़ता ।
100वा जन्म । भगवान श्री ने पूछा क्या देख रहे हो ?

कहा माधव इतनी देर तो कुछ नहीं देखा लेकिन यह मेरा पिछला 100वा जन्म दिखाई दे रहा है ।
एक किसान देख रहा हूं, हल जोत रहा है
वह । दो बैल आगे लगे हुए हैं । और जो उसका लोहे का भाग है वह जमीन में उसकी खुदाई कर रहा है । छोटी झाड़ी आती है उसे उखाड़ देता है । करते-करते एक बहुत बड़ी झाड़ी में अटक गया है किसान । बैल आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं । लेकिन बढ़ नहीं पा रहे । वह लोहे का हिस्सा वही फंस गया है । मैं देख रहा हूं उस किसान ने कुछ और चारा नहीं चला तो किसान ने झाड़ी को आग लगा दी । झाड़ी सारी साफ हो गई‌। उसी झाड़ी में छिपी हुई एक सर्पनी अभी सौ अंडे उसने दिए थे । वह अपने बच्चों को नहीं देख सकी,
तू अपने बच्चों को नहीं देख सका ।
उस आग में सर्पनी तो बच गई लेकिन अंडे जल गए, सर्पनी की आंखें अंधी हो गई, तेरी आंखें भी अंधी जन्म से । तू अपने पुत्र नहीं देख सका, जैसे वह अपने बच्चे नहीं देख सकी । उसकी आंखों के सामने सौ के सौ बच्चे मर गए, उस किसान ने मार दिए ।
तेरे सामने तेरे सौ पुत्र मर गए ।
How accurate is
अकाट्य कर्म सिद्धांत, इससे बचना बहुत मुश्किल । तो साधक जनों यहीं समाप्त करने की इजाजत दीजिए । धन्यवाद ।

Loading comments...