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Pravachan Shree Vishwamitra ji
परम पूज्य डॉक्टर विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1008))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५२५(525)*
*आत्मिक भावनाएं*
*सुख*
*भाग-४*
संत, संत ठहरे । कुशाग्र बुद्धि के व्यक्ति थे । कहा भाइयों यह जो आपको हार दिखाई दे रहा है यह हार नहीं है । हार तो ऊपर लटक रहा है । चील उठाकर इस हार को ले गई थी अपने घोंसले में ।
ऊपर पेड़ है जिसकी छाया इस जल में दिखाई दे रही है । वह छाया कौन पकड़ सकता है, उस प्रतिबिंब को कौन पकड़ सकेगा । वह आपको प्रतिबिंब दिखाई दे रहा है । हार ऊपर लटक रहा है । जो कोई ऊपर जाएगा वह हार को पकड़ लेगा । उसके हाथ यह नौलखा हार आ जाएगा । यह परछाई जो है, यह जो छाया है, यह जो प्रतिबिंब है, उस हार का प्रतिबिंब जो जल में दिखाई दे रहा है । आप युग-युगांतर भी इसे पकड़ने की कोशिश करते रहिएगा, यह आपके हाथ नहीं आएगा। हाथ में आएगा कीचड़, क्या आएगा गंदगी, हार नहीं आएगा ।
भक्तजनों जिस सुख से हम परिचित हैं, जिस सुख के लिए हम संसार में भटकते फिरते हैं, जिसे विषय सुख कहा जाता है, जिसे वासना का सुख कहा जाता है, वह सुख उस परम सुख का प्रतिबिंब है । वह सच्चा सुख नहीं है । इसीलिए खाली हाथ व्यक्ति जाता है ।
खोज उस परम सुख की है, उस शाश्वत सुख की है, उस अक्षय सुख की है, जो कभी खत्म नहीं होता । जिसके साथ दुख नहीं जुड़ा हुआ उसे परमसुख कहा जाता है । उसे ही परमात्मा कहा जाता है, उसे ही परम शांति कहा जाता है, उसे ही परमानंद कहा जाता है । सब एक ही के नाम है । हमें जीवन मिला हुआ है, उस सुख की प्राप्ति के लिए ।
देवियों सज्जनों एक चिंटी से लेकर ब्रह्माजी तक की मौलिक मांग है इस सुख की प्राप्ति । किस सुख की प्राप्ति ?
यह सुख जिसे शाश्वत सुख कहा जाता है, जिसे भजनानंद कहा जाता है, जिसे आत्मसुख कहा जाता है, जिसे अनश्वर शाश्वत Internal happiness जिसे कहा जाता है ।इस सुख की खोज, लेकिन हम अटके कहां हैं । इस अनश्वर सुख की खोज में जिंदगियां बर्बाद हो रही हैं । हम सोचते हैं विषय सुख ही सुख है । यह साधक जनों भ्रांतियां हमारे जीवन से कैसे दूर होंगी, कैसे हम परम सुख की प्राप्ति कर सकेंगे ? आगामी दिनों में यह चर्चा जारी रखेंगे ।
आज सुख की बात शुरू हुई है । सुख क्या है ? क्या किसी वस्तु का नाम है, क्या किसी वस्तु से सुख मिलता है, क्या किसी परिस्थिति से हमें सुख मिलता है ? संत महात्मा घोषणा करते हैं, नहीं ।
सुख उसे कहा जाता है जो अपने मन को प्रिय लगे, वह सुख । जो अप्रिय लगे वह दुख । मन का खेल है, किसी वस्तु का नहीं । ना ही किसी वस्तु में सुख या दुख है। बिल्कुल नहीं, यह मन का खेल है । मन किस वस्तु को प्रिय कहता है, घोषणा करता है वह सुख है आपके लिए। किसको दुख प्रतिकूल जान के तो दुख घोषित करता है, वह दुख है, जो अप्रिय है मन के लिए । तो यह सुख-दुख क्या हुए मन का खेल हुए ।
आज सुख की बात शुरू हुई है । सुख क्या है ? क्या किसी वस्तु का नाम है, क्या किसी वस्तु से सुख मिलता है, क्या किसी परिस्थिति से हमें सुख मिलता है ? संत महात्मा घोषणा करते हैं, सुख उसे कहा जाता है जो अपने मन को प्रिय लगे वह सुख, जो अप्रिय लगे वह दुख । मन का खेल है किसी वस्तु का नहीं। ना ही किसी वस्तु में सुख या दुख है । बिल्कुल नहीं । यह मन का खेल है । मन किस वस्तु को प्रिय कहता है, घोषणा करता है वह सुख है। आपके लिए किसको दुख जान के तो प्रतिकूल घोषित करता है वह दुख है, जो अप्रिय है मन के लिए । तो यह सुख-दुख क्या हुए मन का खेल हुए ।
उदाहरणतया एक उदाहरण से देखिएगा आप सर्दी आने वाली है । कंबल निकल आएंगे, रजाईयां निकल आएंगी । वह कंबल कितना सुखदाई है सर्दियों में, वही कितना दुखदाई है गर्मियों में। मानो वस्तु में सुख नहीं है। गर्म पानी कितना अच्छा लगता है सर्दियों में, कितना दुख देता है गर्मी में ।पानी तो एक ही है ।
Fish market में व्यक्ति जाता है । Meat market में व्यक्ति जाता है । खाने वाला है, उसे बू नहीं आती । बू आती भी है, उसके बाद भी वह खरीदता है । आकर घर पकाता है । बहुत आनंदपूर्वक, सुखपूर्वक उसे खाता है । दूसरा व्यक्ति जिसे मीट खाने का शौक नहीं है, जिसे मछली खाने का शौक नहीं है, वह उस बाजार से गुजरता है तो, नाक पर कपड़ा रख कर चलता है । एक के लिए वही चीज कितनी सुखद है और दूसरे के लिए कितनी दुखद । सिगरेट बीड़ी पीने वाले लोग कितने मजे से सिगरेट बीड़ी पीते हैं, सबको दिखा दिखा कर पीते हैं । आपको धुआं उसका कितना बुरा लगता है, जो नहीं पीते । एक ही चीज है लेकिन एक के लिए सुखद है और दूसरे के लिए दुखद
है । तो यूं कहिएगा किसी वस्तु में सुख या दुख नहीं है। मन का खेल है, वह किसको प्रिय मानता है और किसको अप्रिय मानता है । जिसको प्रिय मानता है, जो उसके अनुकूल है वह सुख है । जो उसके प्रतिकूल है वह दुख
है ।
सुख साधक जनों यह कहां से आएगा ? आत्मिक भावनाएं जो स्वामी जी महाराज ले रहे हैं, कह रहे हैं
सुखस्वरूप है आत्मा,
शांत स्वरूप है आत्मा,
सत्य स्वरूप है आत्मा,
पवित्र स्वरूप है आत्मा । यह सब भावनाएं स्वामी जी महाराज क्यों बता रहे हैं । मानो हमारी दृष्टि को वहां से हटा कर तो भीतर केंद्रित करने के लिए, अपनी आत्मा पर केंद्रित करने के लिए, परमात्मा पर केंद्रित करने के लिए सुख, शांति, पवित्रता, शक्ति, आनंद आदि के स्रोत पर अपनी दृष्टि केंद्रित, अपनी भावनाओं को जोड़ने के लिए ही यह सारी की सारी आत्मिक भावनाएं ली जा रही हैं ।
क्यों ?
सभी संत महात्मा जानते हैं, संभवतया आप भी जानते हो जहां हम भटक रहे हैं वहां तो सुख की परछाई है । वहां सुख वास्तविक नहीं है । कभी हाथ नहीं आएगा ।
सुख ढूंढते-ढूंढते जिंदगी बीत जाएगी, हाथ में कीचड़ ही आएगा । जैसे डुबकी लगाने वालों को हार तो हाथ में नहीं आ रहा था ।
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