Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj

1 year ago
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परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1005))
धुन :
मेरे आत्मा रूपी मंदिर में
आ जाओ मेरे राम जी,
मेरे आत्मा रूपी मंदिर में
आ जाओ मेरे राम जी ।।
आ जाओ मेरे राम जी,
आ जाओ मेरे राम जी ।।

*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५२२(522)*
*आत्मिक भावनाएं*
*भाग १*

पूज्य पाद स्वामी जी महाराज ने देवियों सज्जनों आज आत्मिक भावनाओं का प्रसंग शुरू किया है । स्वामी जी महाराज ने इस प्रसंग के अंतर्गत 12 भावनाओं की चर्चा की है । आज प्रथम दो पढ़ी गई हैं ।

यह प्रसंग क्यों जरूरी है साधकजनों हमारे जीवन में ?
इसलिए साधकजनों की हमारा शरीर के साथ इतना तदात्म हो चुका हुआ है,
इन भावनाओं को जीवन में उतारे बिना यह तदात्म identifaction, यह तदात्म कभी टूटने वाला नहीं । जन्म जन्मांतरो से यह तदात्म हमारा बना हुआ है । हमारे मन में ऐसी भावना बैठी हुई है, हमारे भीतर ऐसी भावना बैठी हुई है, हम अपना “मैं” शरीर के साथ, देह के साथ । इसका विच्छेद अत्यधिक जरूरी । यूं कहिएगा जब तक यह तदात्म टूटता नहीं है, यह संबंध जो देह के साथ हमने जोड़ कर रखा हुआ है, यह संबंध जब तक विच्छेद नहीं होता, तब तक व्यक्ति जन्म मरण के चक्र से छूट नहीं सकेगा ।

जाप तो साधकजनों इस घनिष्ठ संबंध को तोड़ने का एक साधन है । लेकिन प्राप्ति क्या करनी है ? यह संबंध विच्छेद होना बहुत जरूरी है । जब हो जाता है साधकजनों तो फिर आदमी को अपने वास्तविक स्वरूप का, अपने सद स्वरूप का, बोध हो जाता है। तभी स्वामी जी महाराज, पूज्य श्री प्रेम जी महाराज, प्राय: कहा करते;
प्रत्येक माला जब फेरते हो, करते हो,
जब एक माला खत्म हुई,
साथ ही साथ यह भी बोला करो, कम से कम 7 बार जरूर बोला करो -
मैं अजर, अमर, नित्य, शुद्ध, प्रबुद्ध, मुक्त, आनंद स्वरूप आत्मा हूं । मैं अजय, अमर, शुद्ध, प्रबुद्ध, नित्य, मुक्त, आनंदमयी आत्मा हूं । सच्चिदानंद स्वरूप बोलिए या एक शब्द तोड़कर अजर, अमर ।

आज कितना कुछ कहा गया है अजर हूं, अमर हूं, नित्य हूं , शुद्ध हूं, प्रबुद्ध हूं, मुक्त हूं, आनंदमयी हूं । यह आनंद स्वरूप यह हर माला के साथ साधकजनों आपको 7 बार यह जरूर बोलना चाहिए । ताकि जो संबंध हमारा देह के साथ जुड़ा हुआ है, जो Identification हमारी देह के साथ हुई हुई है, वह खत्म हो जाए । यह तदात्म क्या है?

साधक जनों थोड़े शब्दों में -
जैसे किसी का विवाह हो जाता है,
ऐसा ही तदात्म है । विवाह होने के बाद सरनेम बदल जाता है । लड़की जो पहले थी वह वह नहीं रहती । उसका सरनेम पति के साथ जुड़ जाता है । ठीक इसी प्रकार से संत महात्मा कहते हैं यह तदात्म है ।
जब व्यक्ति कि मैं इस देह के साथ, इस मन के साथ, बुद्धि के साथ, सुख दुख के साथ जुड़ जाए, तो उसे तदात्म कहा जाता है । Identification कहा जाता है । यह देह भी है, हमको पता है नश्वर है, इस पर दुख भी आएंगे, सुख भी आएंगे । जो इनके संबंधी हैं उन पर भी सुख दुख आएंगे । लेकिन जब आप यह कहना शुरू कर देते हैं मेरा देह, मैं दुखी हूं, मैं सुखी हूं तो इसे तदात्म कहा जाता है । यह सत्य नहीं है साधकजनों‌ । क्यों ? अपने स्वरूप को आप भूले हुए हैं और आपने गलत जगह पर उसे लगा दिया है, गलत समझ लिया है ।

संत महात्मा यदि आप से पूछें कि आपने कैसे किया है ? तो संत महात्मा ही उत्तर दे पाएंगे । यह भ्रांति है, भ्रम है, वहम है ।
कहते हैं रोग का तो साधकजनों इलाज है ना, डॉक्टर कर सकते हैं । लेकिन वहम का इलाज कौन करें ? यह आत्मिक भावनाएं उस वहम का इलाज है । यह आत्मिक भावनाएं जीवन में उतरेंगी, आएंगी साधकजनों, तो जीवन धन्य होगा । अन्यथा यह जाप पाठ कब काम आएगा, कहां काम आएगा, वह परमात्मा के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ।
मानो इस जगत में रहते हुए, इस जन्म में जो कुछ पाना चाहिए था, जो कुछ होना चाहिए था, वह तो नहीं हुआ ।
यह तो वैसे ही बात हो गई जैसे आप सारी रात नौका चलाते रहे । यहां हम सारा जीवन नौका चलाते हैं । वह तो एक रात की बात है। एक रात कोई नौका चलाता रहे,
सुबह देखे कि जहां नौका चलानी शुरू की थी नौका वही की वही है । क्यों ? आपने जिस रस्सी के साथ नौका को बांध रखा था, वह रस्सी आप ने खोली नहीं । यह तदात्म वही रस्सी है साधकजनों । इसे अविद्या कहा जाता है । जब तक यह टूटेगी नहीं, छूटेगी नहीं, आगे प्रगति नहीं हो पाएगी ।
प्रगति क्या ? अर्थात यह जन्म मरण का चक्कर छूटेगा नहीं ।

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