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Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1002))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५१९(519)*
*सत्संगति की महिमा*
*भाग -१*
कोटि कोटि प्रणाम है मेरी माताओ सज्जनो। आप सब के श्री चरणों में असंख्य बार, उससे भी कहीं अधिक बार, मेरी चरण वंदना स्वीकार कीजिएगा । सर्वप्रथम एक निवेदन है आप सबसे । सितंबर, अक्टूबर में खुले सत्संग हो रहे हैं । एक गुरदासपुर में, एक जम्मू में । उन सत्संगो में जो साधक वहां सम्मिलित होना चाहते हैं, मेहरबानी करके यहां नाम दे दें ।जिनके नाम स्वीकार हो, वही वहां पहुंचे । वैसे आप नाम भेजेंगे तो स्वीकार नहीं हो पाएंगे । यहां नाम जमा करवाइएगा, दीजिएगा । जिनको स्वीकृति मिले, मेहरबानी करके वही उन खुले सत्संगो में जाइएगा । धन्यवाद ।
चर्चा चल रही थी साधक जनों गीता जी के नौवें अध्याय की । नौवें अध्याय के 30वें एवं 31वें श्लोक की । 30वां श्लोक क्या कहता है, कितनी सांत्वना है, कितना आश्वासन है गीताचार्य भगवान श्री कृष्ण की ओर से । कोई अति दुराचारी भी एक भाव से यदि आराधन करता है, भजन करता है, तो वह साधु ही जानने योग्य है । क्यों ? एक तो कहा एक भाव से, मानो अनन्य भाव से, With undivided heart, एक भाव से, अनन्य भाव से, जो मेरी आराधना करता है, जो उपासना करता है, वह साधु ही जानने योग्य है । अति दुराचारी भी वह क्यों ना हो, कोई अति दुराचारी, बड़ा दुराचारी, स्वामी जी महाराज ने लिखा है, अति दुराचारी भी कोई क्यों ना हो, यदि वह एक भाव से मेरा भजन करने लग जाता है, तो वह साधु ही जानने योग्य है । क्यों ? वह यथार्थ दृढ़ निश्चयी हो गया है । किसी चीज के प्रति दृढ़ निश्चयी यथार्थता के प्रति । यह यथार्थता क्या है ?
भगवान श्री एक तो कहते हैं उस दृढ़ निश्चयी ने यह निश्चय कर लिया है, कि आज के बाद मेरा जीवन दुराचारी जीवन नहीं होगा । उसने दुराचरण का त्याग कर दिया है ।
इतिहास यही कहता है जो गीताचार्य भगवान श्री कृष्ण ने लिखा है, यदि किसी वैश्या ने, यदि किसी डाकू चोर ने, भक्तिमय जीवन को अपनाया है, तो साथ-साथ चोरी, डाका या व्यसनी जीवन नहीं रखा, व्यभिचारी जीवन नहीं रखा, उनका त्याग किया है, उसके साथ उसके बाद भक्तिमय जीवन अपनाया है, तो वह साधु ही जानने योग्य है । ऐसा व्यक्ति शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है । मानो वह साधु नहीं है, लेकिन उसको साधु बनाने का जिम्मा मेरा है । मैं उसे साधु बना देता हूं ।
जो दृढ़ निश्चयी है, उसने यह फैसला कर लिया है कि मैं अब दुराचारी जीवन व्यतीत नहीं करूंगा, एवं उसके साथ ही साथ यह निश्चय भी कर लिया है, राम भजन के अतिरिक्त, परमात्मा के भजन से और कुछ भी श्रेष्ठतर नहीं है । दोनों बातें सदाचारी जीवन एवं भक्तिमय जीवन, दोनों हो तो परमात्मा के दर्शन हुआ करते हैं, परमात्मा की प्राप्ति हुआ करती है, परम शांति आपको लाभ होती है, इनके बिना नहीं ।
यह दोनों श्लोकों में जो कहा गया है, वह आपकी सेवा में रखा गया है । उस रविवार आपने सुधनवा का दृष्टांत सुना था । खत्म कहां हुआ था, सुधनवा बहुत दुराचारी व्यक्ति है । अपने दुराचरण के कारण बहुत उदास, निराश, हताश है । यह सिलसिला कब तक चल सकता है । आदमी थक जाता है, निराश हो जाता है, बहुत देर तक इंद्रियां साथ नहीं देती, शिथिल हो जाती हैं, लेकिन तृष्णा तो वैसी की वैसी ही जवान रहती है। यह कैसे मरेगी ? जब तृष्णा का रुख मुड़ जाएगा तो, और तृष्णा का रुख मुड़ता है सत्संगति के माध्यम से । सत्संगति हमारी वासना का रुख बदल देती है । उसे कुवासना से हटाकर तो उसे सदवासना की ओर मोड़ देती है । तो काम बन जाता है । मोह ममता के जाल से छुड़ाकर तो, उसकी मोह ममता को परमेश्वर के साथ जोड़ देती है सत्संगति । यह सत्संग का प्रताप है ।
सुधनवा आज घर छोड़कर निकल गया है। कहां गया है, नर्मदा नदी के किनारे । वहां बहुत संत महात्मा आनंद मग्न बैठे हुए हैं । कोई ध्यान में बैठा हुआ है, कोई स्वाध्याय कर रहा है, कोई भजन कीर्तन कर रहा है । यह सब कुछ देख कर उसे जो ग्लानि होती है, आप उसका अनुमान नहीं कर सकते ।
रो रहा है, बिलख रहा है । मैंने अपनी जिंदगी बर्बाद कर दी । देखो, इनके पास कुछ भी नहीं है, इसके बावजूद भी ना इन्हें खाने की चिंता, ना पीने की चिंता, न सोने की चिंता । उसके बाद भी यह कितने आनंदित हैं, कितने प्रफुल्लित हैं, कितने मुदित हैं यह लोग । रोज इनको देखता रहता है । कभी पास नहीं बैठने की हिम्मत नहीं की, कभी बात करने की उनसे हिम्मत नहीं की ।
इस प्रकार एक महीना लगभग व्यतीत हो गया है ।
सिर्फ संतों महात्माओं के दर्शन किए हैं। भजन पाठ करते हुए उनके दर्शन किए हैं । वृथा तो नहीं जा सकते, अतएव सर्प के काटने से सुधनवा की मृत्यु हो गई है । संतों महात्माओं को अच्छा नहीं लगा । हमारे पास मृत्यु का हो जाना अच्छी बात नहीं लगी। कैसे हिम्मत हुई मृत्यु की, कैसे हिम्मत हुई काल की । भीतर ही भीतर संत महात्मा इस बात को सोचते हैं, पर जाना तो होता ही है । चाहे आप श्री राम शरणम् में बैठे हुए हो, चाहे आप कहीं, मृत्यु का बुलावा तो कहीं भी आ जाएगा । संत के सत्संग में बैठे हो या कहीं और बैठे हुए हो, मृत्यु को इस बात से क्या लेना ? संकोच तो होता है उसे, लेकिन फिर बड़ी सरकार का हुक्म है, हुकम तो उसी का मानना पड़ता है ।
सुधनवा को उसके कर्मों के अनुसार यमराज के सामने पेश किया गया है । यमदूत उसका सारे का सारा हिसाब किताब, चिट्ठा, यमराज को सुनाते हैं । यमराज तत्काल उनको कहते हैं इसे घोर से घोर नरक की यातनाएं दी
जाए । तपती हुई बालू में, रेत में इसे घसीटते हुए, इसे जितनी दूर तक घसीट सको, घसीटते जाओ । आपको आगे उबलते हुए तेल का कड़ाहा मिलेगा, उसमें इसे फ्राई करने के लिए डाल देना । ऐसा ही हुआ । लेकिन परमेश्वर की लीला देखिएगा । तेल, उबलता हुआ तेल, बिल्कुल शीतल हो गया है । नरक में, यमपुरी में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ । सब अचंभित हैं । यमराज ने यह सब कुछ अपनी आंखों से देखा । अतएव बहुत अचंभित, बहुत चकित । यह सब कुछ कैसे हो गया, कुछ समझ में नहीं आ रहा ।
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