Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj

1 year ago
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परम पूज्य डॉ विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((985))

*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५०२(502)*
*वचन के साधन (वाणी की महत्ता)*
*भाग-९*

वचन के साधनों की साधक जनो चर्चा यहीं समाप्त करते हैं । आज थोड़ी इस वक्त ईर्ष्या पर चर्चा शुरु कर देते हैं । परसों जारी
रखेंगे ।

ईर्ष्या क्या है ? एक ऐसी जलन जो किसी दूसरे को ऊपर चढ़ता हुआ, आगे बढ़ता हुआ देखने के कारण व्यक्ति के अंदर पैदा होती है जलन । किस बात की जलन इसलिए कि वह आगे बढ़ रहा है और वह उस जैसा नहीं बन सकता यह भारी जलन, निराशा की जलन । ईर्ष्या क्या है, फिर सुनो याद रखना ईर्ष्या क्या है ? किसी को आप आगे बढ़ता, ऊपर चढ़ता हुआ देखते हैं कोई आपसे superior है किसी भी प्रकार से । आपसे वह देखा नहीं जाता क्यों ? आप उस जैसा बनने में असमर्थ हो, आप उस जैसा बन नहीं सकते तो यह निराशा की आग जो अंदर जलती है उसे ईर्ष्या की आग कहा जाता है, मत्सर कहा जाता है । देवियो सज्जनो कोई कहे कि मेरे अंदर ईर्ष्या नहीं है, यह बिल्कुल ऐसी ही बात होगी जैसे कोई कहे की मैं निरअभिमानी हूं, मेरे अंदर अभिमान लेशमात्र भी नहीं है । मानो दोनों बातें झूठ है । दोनों बातें ठीक नहीं हो सकती। ईर्ष्या भी किसी ना किसी मात्रा में हर एक के अंदर हुआ करती है, और अभिमान तो होता ही होता है, इसमें कोई शक नहीं है । मत्सर इसे कहते हैं । मत्सर साधक जनों कोई योगी है, कोई रोगी है, कोई वियोगी है, कोई सन्यासी है, कोई गृहस्थ है, कोई सिद्ध है, साधक जनों किसी को sphare नहीं करता । मत्सर ऐसा दुर्गुण है, ईर्ष्या ऐसा दुर्गुण है । बचपन से ही शुरू हो जाता है ।

बड़ा बच्चा छोटा बच्चा पैदा होते ही अंगूठा चूसना शुरू कर देता है, सुसु करना शुरू कर देता है, रूठना शुरू कर देता है, थाली फेंकना शुरू कर देता है । बात-बात पर रूठेगा, मानो वह यह चाह रहा है कि छोटा या छोटी को attention ना दे कर तो attention मेरी तरफ होनी चाहिए । उसे खाने को ना मिले, घर में फसाद खड़ा कर देता है । रोना शुरू कर देगा बेवजह । यह सब ईर्ष्या के चिह्न हैं । यह बचपन से ही शुरू हो जाते हैं, और बड़े होने तक खूब बढ़ जाते हैं यह ।

आज साधक जनों शुरुआत करते हैं एक बहुत बड़े सिद्ध की चर्चा से । प्रसिद्ध चांगदेव इतने बड़े प्रसिद्ध हुए हैं । देवियो सज्जनो चौदह सौ वर्ष कि उनकी आयु। कहते हैं चौदह बार मृत्यु को वापस लौटा दिया । इतने सिद्धियों के मालिक चांगदेव । मिलती हैं साधना में, जिनका लक्ष्य सिद्धियां प्राप्त करना है, उनको सिद्धियां मिलती है । जिनका लक्ष्य प्रदर्शन है, जिनका लक्ष्य यश मान ख्याति इत्यादि हैं, यह सब चीजें साधना के बाद मिलती है । इस में ऐसी कोई अचंभे वाली बात नहीं है । चांगदेव ऐसे ही सिद्ध
है । चौदह सौ वर्ष की उनकी आयु । उन दिनों की बात है जिन दिनों संत ज्ञानेश्वर भी हुए हैं । वह अभी सोलह वर्ष के ही थे । लेकिन सुना बहुत बड़ा ज्ञानी है संत
ज्ञानेश्वर । ऐसे ज्ञानी को अपनी सिद्धियों का बोध करवाना चाहिए । ऐसे ज्ञानी को पता होना चाहिए कि मैं एक हस्ती हूं । अतएव एक पत्र लिखने की कोशिश । पत्र लिखना चाह रहे हैं चांगदेव । सामने कागज रखा है, क्या लिखूं । ज्ञानी है अतएव चिरंजीव नहीं लिख सकता, छोटा है इसलिए आदरणीय, वंदनीय भी नहीं लिख सकता । यह सब साधक जनों भीतर छिपे हुए महारोग अभिमान के चिन्ह हैं । भीतर छिपा हुआ है एक महा रोग । कोई छोटा-मोटा नहीं है यह कोई छोटी मोटी मात्रा में नहीं है बड़ा भारी रोग है । ज्ञानी है मैं इसे चिरंजीव नहीं लिख सकता मेरी आयु चौदह सौ वर्ष की है। मेरे से छोटा है अतएव मैं उसे पूज्य, आदरणीय, वंदनीय भी नहीं लिख सकता । कोरा कागज संत के पास अपने किसी शिष्य के हाथ भेज दिया । चांगदेव ने कोरा कागज देखा, कहते हैं मुक्ताबाई ने उनकी शिष्या थी, मुक्ताबाई ने कागज दिखाया । ऐसे ऐसे एक सिद्ध का कागज आया है, पत्र आया है । पत्र देखकर ऐसे ऐसे करके कहा, उन्हें मेरी तरफ से संदेश भेज दो, हो तो चौदह सौ वर्ष के लेकिन हो कोरे के कोरे । आयु तो तुम्हारी है चौदह सौ वर्ष, लेकिन हो कोरे के कोरे ।
आगे की चर्चा सोमवार को कर लेंगे । अभी यहीं समाप्त करने की इजाजत दीजिएगा धन्यवाद ।

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