सभ्यता-पुनरुत्थान से भारत के आत्मबोध और वैश्विक भूमिका का पुनर्रचना

4 days ago
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स्वतंत्रता के बाद के नेहरूवादी ढांचे ने भारत की सभ्यतागत कथा को बड़े पैमाने पर नज़रअंदाज़ किया और इसके बजाय “भारतीयता” को इस रूप में पेश किया कि हम पश्चिमी मूल्यों और आदर्शों को अपनाने में कितनी “तरक्की” कर पाए हैं।

लेकिन पिछले एक दशक में, जैसे जैसे वामपंथी-उदारवादी कथानक गंभीर चुनौती का सामना करने लगे और देश में एक अभूतपूर्व हिंदू जागरण देखा गया, वैसे वैसे इस प्रवृत्ति में भी एक बड़ा बदलाव आया।

• भारत की सभ्यतागत और सांस्कृतिक कथा अब उसकी अपनी पहचान और वैश्विक छवि निर्धारित करने वाली एक मुख्य कसौटी बनती जा रही है।

• भारत का रणनीतिक और सभ्यतागत विमर्श भले ही पहली नज़र में एक दूसरे से अलग जान पड़े, लेकिन ज़रा गहराई से जाँचने-परखने पर दोनों में एक साझा सूत्र दिखाई देता है।

• भारत अब अपनी सभ्यता की ताकत का सहारा केवल धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में ही नहीं ले रहा, बल्कि शासन और नीति निर्माण के क्षेत्र में भी वह इससे प्रेरणा ले रहा है।

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