सांस्कृतिक आत्मविनाश की ओर बढ़ता भारत — और क्या इसे थामा जा सकता है?

17 days ago

सभ्यताएँ अक्सर बाहर से नहीं, भीतर से टूटती हैं। भारत, जिसने सदियों तक आक्रमणों और गुलामी को झेला, अब आज़ादी के बाद अपनी ही नीतियों और सांस्कृतिक कटाव से कमजोर हो रहा है। यह आत्मविनाश की ओर बढ़ता कदम है।

इस्लामी और औपनिवेशिक हमलों से भारत की सभ्यता टूटने के बजाय और मजबूत हुई। लेकिन स्वतंत्रता के बाद पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की नीतियों ने हिंदू पहचान को दबा दिया और उसे मुख्यधारा से दूर कर दिया।

आज़ादी के बाद शिक्षा मंत्रालय का रुख स्पष्ट रहा — इस्लामी आक्रमणों की हिंसा को छिपाना, हिंदू प्रतिरोध को हाशिये पर डालना और पश्चिमी-मार्क्सवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देना। इसका सीधा असर यह पड़ा कि पीढ़ियाँ अपनी ही सभ्यतागत परंपराओं से कटीं।

जब किसी समाज के पूजास्थल पर बाहरी नियंत्रण हो, उसकी संख्या घटने लगे और उसका शिक्षित वर्ग अपनी ही संस्कृति से विमुख हो जाए, तो उसकी निरंतरता कमजोर होना स्वाभाविक है। यही हाल हिंदू समाज का हुआ, जबकि अल्पसंख्यक संस्थाएँ बिना किसी बंधन के चलती रहीं।

किसी भी सभ्यता का नवीनीकरण केवल एक दिशा से नहीं आता। हिंदू पुनर्जागरण तभी होगा जब शिक्षा से लेकर साधना, मंदिरों से लेकर भाषाओं और क़ानून से लेकर समाज तक सबमें नई ऊर्जा आए। राजनीति, संस्कृति और आध्यात्मिकता का संगम ही इसका आधार बनेगा।

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