सिंध के विध्वंस हुए मंदिर: एक मौन सभ्यता की प्रतिध्वनि

21 days ago
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सिंध कभी भारत की सांस्कृतिक धमनियों में एक प्रमुख केंद्र था, जहाँ सिंधु नदी के किनारे वेदों की ऋचाएँ गूंजती थीं और मंदिर जीवन, धर्म, और दर्शन के केंद्र थे।

विभाजन के बाद सिंध के हिंदू समुदाय का पलायन कोई आकस्मिक विस्थापन नहीं, बल्कि एक सुनियोजित सांस्कृतिक सफाई का परिणाम था—जहाँ मंदिरों को अपवित्र किया गया और समुदाय को अपने ही भूगोल से बेदखल कर दिया गया।

विभाजन के बाद दशकों में अनेक मंदिर या तो ध्वस्त कर दिए गए, या उनका उपयोग अपमानजनक रूप से मस्जिदों, दफ्तरों या शौचालयों में बदल दिया गया—यह केवल स्थापत्य का नहीं, स्मृति और संस्कृति का भी अपलोप था।

विस्थापित सिंधी हिंदू समुदाय ने भारत में पुनर्निर्माण तो किया, पर उनकी सांस्कृतिक पीड़ा कभी राष्ट्रीय स्मृति में स्थान नहीं पा सकी। उनके मंदिर ‘राष्ट्रीय धरोहर’ नहीं बने, और उनकी पीड़ा निजी रह गई।

सिंध के मंदिर अब स्मरण के प्रतीक हैं—वे हमें चेताते हैं कि सभ्यता की रक्षा स्मृति से होती है। यदि उन्हें भारत की चेतना में पुनः स्थान न मिला, तो यह हमारी सामूहिक विफलता होगी। स्मृति ही सभ्यता का अंतिम आश्रय है।

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