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श्रीमद भागवत कथा |अध्याय १ | भाग-२ | दुर्योधन पाण्डवों की सेना | पाण्डवों की व्यूहरचना
धृतराष्ट्र उवाच । धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्ने समवेता युयुत्सवः | मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा | आचार्यमुपसङ्गगम्य राजा वचनमत्त्रवीत्
भावार्थ
संजय ने कहा - हे राजन! पाण्डुपुत्त्रों द्वारा सेना की व्यूहरचना देखकर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे।
तात्पर्य
धृतराष्ट्र जन्म से अन्धा था | दुर्भाग्यवश वह आध्यात्मिक दृष्टि से भी वंचित था। वह यह भी जानता था कि उसी के समान उसके पुल भी धर्म के मामले में अंधे हैं और उसे विश्वास था कि वे पाण्डवों के साथ कभी भी समझौता नहीं कर पायेंगें क्योंकि पाँचो पाण्डव जन्म से ही पवित्र थे। फिर भी उसे तीर्थस्थल के प्रभाव के विषय में सन्देह था। इसीलिए संजय युद्धभूमि की स्थिति के विषय में उसके प्रश्न के मंतव्य को समझ गया | अतः वह निराश राजा को प्रोत्साहित करना चाह रहा था। उसने उसे विश्ववास दिलाया कि उसके पुत्न पवित्र स्थान के प्रभाव में आकर किसी प्रकार का समझौता करने नहीं जा रहे हैं। उसने राजा को बताया कि उसका पुल दुर्योधन पाण्डवों की सेना को देखकर तुरन्त अपने सेनापति द्रोणाचार्य को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने गया | यद्यपि दुर्योधन को राजा कह कर सम्बोधित किया गया है तो भी स्थिति की गम्भीरता के कारण उसे सेनापति के पास जाना पड़ा | अतएव दुर्योधन राजनीतिज्ञ बनने के लिए सर्वथा उपयुक्त था | किन्तु जब उसने पाण्डवों की व्यूहरचना देखी तो उसका यह कूटनीतिक व्यवहार उसके भय को छिपा न पाया।
पश्चैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् | ब्यूढां द्रुपदपुत्त्रेण तब शिष्येण धीमता
भावार्थ: है आचार्य ! पाण्डुपुत्लों की विशाल सेना को देखें, जिसे आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद के पुत्ल ने इतने कौशल से व्यवस्थित किया है
तात्पर्य
परम राजनीतिज्ञ दुर्योधन महान ब्राह्मण सेनापति द्रोणाचार्य के दोषों को इंगित करना चाहता था। अर्जुन की पत्नी द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद के साथ द्रोणाचार्य का कुछ राजनीतिक झगड़ा था। इस झगड़े के फलस्वरूप द्रुपद ने एक महान यज्ञ सम्पन्न किया जिससे उसे एक ऐसा पुत्त्र प्राप्त होने का वरदान मिला जो द्रोणाचार्य का वध कर सके | द्रोणाचार्य इसे भलीभाँति जानता था किन्तु जब द्रुपद का पुल धृष्ट द्युम्न युद्ध-शिक्षा के लिए उसको सौंपा गया तो द्रोणाचार्य को उसे अपने सारे सैनिक रहस्य प्रदान करने में कोई झिझक नहीं हुई | अब धृष्टद्युम्न कुरुक्षेल की युद्धभूमि में पाण्डवों का पक्ष ले रहा था और उसने द्रोणाचार्य से जो कला सीखी थी उसी के आधार पर उसने यह व्यूहरचना की थी दुर्योधन ने द्रोणाचार्य की इस दुर्बलता की ओर इंगित किया जिससे वह युद्ध में सजग रहे और समझौता न करे । इसके द्वारा वह द्रोणाचार्य को यह भी बताना चाह रहा था की कहीं वह अपने प्रिय शिष्य पाण्डवों के प्रति युद्ध में उदारता न दिखा बैठे | विशेष रूप से अर्जुन उसका अत्यन्त प्रिय एवं तेजस्वी शिष्य था। दुर्योधन ने यह भी चेतावनी दी कि युद्ध में इस प्रकार की उदारता से हार हो सकती है
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