Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1117))
धुन:
*“बंदा सोचे मैं किया, करणहार करतार"*
*तेरा किया ना होवेगा, होगा होवण हार” ।।*
*श्री गीता ज्ञान यज्ञ भाग 35*
*11वां अध्याय विश्वरूप दर्शन*
*(शरणागति) भाग २*
*“विश्वरूप दर्शन 11 वें अध्याय के चर्चा चल रही है। साधक जनों इस अध्याय का सार यही है "बंदा सोचे मैं किया, करण हार करतार” भगवान ने अपना विराट स्वरूप अर्जुन को दिखाया है । कोई picture दिखाने के लिए नहीं, कोई show दिखाने के लिए नहीं । उसके मन से कर्तापन का भाव निकालने के लिए । यह समस्या हम सब की है । अर्जुन के माध्यम से भगवान श्री, विराट स्वरूप दिखाकर तो हम सबको शिक्षा देना चाहते हैं “बंदा सोचे मैं किया करण हार करतार” मैं हूं सब कुछ करने वाला । एक मेरी ही परम इच्छा सर्वव्याप्त है । जो साधक जनो उसकी परम इच्छा के प्रति समर्पित हो जाता है, ऐसे शरणागत के लिए भगवान क्या-क्या नहीं करते ? व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता । सब कुछ करने को तैयार है ।*
अर्जुन बहुत समझदार है । उसने अपने जीवन रथ की बागडोर भगवान श्री को सौंप दी है । जीवन के रथ के सारथी भगवान श्री। हमें सोचना चाहिए हमारे जीवन रथ के सारथी कौन हैं ? क्या परमात्मा है, या हमारा मन है, और मन के अंदर के विकार ?
क्या हम परमात्मा की इच्छा के अनुसार चलते हैं, या अपनी इच्छा के अनुसार ।
जो परमात्मा की इच्छा के अनुसार चलेगा, वह तो बहुत सुरक्षित है । उसे किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं, कोई भय नहीं, कोई उदासी नहीं । जो अपनी इच्छा अनुसार चलेगा चलता है, उसके जीवन में भय भी है, चिंता भी है, उदासी भी है, निराशा भी है, हताशा भी है, सब कुछ है ।
मैं देवियो सज्जनो बहुत पढ़ा लिखा नहीं हूं। आप सब इस बात को जानते हैं ।
इस सत्य को जानते हो । सुनी सुनाई बातें ही है, जो आपकी सेवा में अर्ज करता रहता हूं। परमेश्वर की महती कृपा है, जैसे भी टूटी-फूटी होती है, आप वैसे ही उन्हें स्वीकार कर लेते हो । मैं आपका हृदय से
धन्यवादी हूं ।
आज साधक जनो जो परमात्मा के शरणागत हो जाते हैं, जैसा कि अर्जुन, भगवान श्री out of the way, थोड़ा छोटा शब्द है, उसके लिए क्या-क्या करते हैं,
सत्य मानिएगा हम कल्पना नहीं कर सकते। प्रेम पूर्वक बातें करने का अधिकार शरणागत को । शरणागत की कल्पना भक्ति से कम नहीं है ।
विभीषण अभी शरणागत हुए नहीं,
प्रभु राम के चरणों में पहुंचे नहीं । आकाश में खड़े हुए हैं । लेकिन उन्हें तो यही लग रहा है कि वह भगवान की चरण शरण में पहुंच गए हैं । कैसे ? भक्त की कल्पना किस प्रकार की हुआ करती है ? मैं प्रभु राम के पास जाऊंगा, जाकर उनके चरणों में प्रणाम करूंगा, कसकर चरण पकड़ लूंगा, वह मुझे कंधे से पकड़कर उठाएंगे, मेरी पीठ पर हाथ फेरेगे, मेरे से प्यार करेंगे, मेरे से दुलार करेंगे। देखने सुनने में तो देवियो सज्जनो यह कल्पना ही लगती है । लेकिन विभीषण तो परमात्मा के पास पहुंच चुका हुआ है । ऐसी कल्पना, कल्पना नहीं है, प्रत्यक्ष है ।
यह शरणागति की महिमा है ।
शरणागत भगवान के साथ किस प्रकार की प्रेम पूर्वक बातें करता है, मानो शरणागत उसे ऐसी वार्तालाप या प्रार्थना करने का अधिकार दे देता है । स्वयं भी आनंद लेता है शरणागत के साथ । अतएव हम सबको साधक जनो इस उपलब्धि की चेष्टा करनी चाहिए । भक्ति की पराकाष्ठा है शरणागति । इस स्थिति को लाभ करने की चेष्टा करनी चाहिए । साधना करनी चाहिए । साधना से इतना नहीं होता, जितना असाधना में होता है । शरणागति में साधना नहीं है । शरणागति में प्रार्थना है, विनय है, दैन्य है, दीनता है, शरणागति में साधना नहीं है । असाधक बनने की जरूरत । असाधक ।
No sadhna.
दीन बनने की जरूरत, निर्धन बनने की जरूरत, हारने की जरूरत, थकने की जरूरत, शरणागति । सरोवर सूख जाता है पंछी उस सरोवर से उड़कर कहीं दूसरे सरोवर में चला जाता है । बेचारी मछली क्या करें ? उसे ना उड़ना आता है, ना सरोवर बदलना आता है । ऐसी स्थिति को साधक जनो शरणागति कहा जाता है ।
जब परमेश्वर के अतिरिक्त और कोई सहारा दिखाई ना दे, परमेश्वर को व्यक्ति अपना सर्व सहारा मान ले, और उनकी चरण शरण में चला जाए, ऐसी स्थिति को शरणागति कहा जाता है, समर्पण कहा जाता है । अपना आप सौंप दिया परमात्मा आपके श्री चरणों में । तू जाने तेरा काम जाने । बंदा निश्चिंत हो जाता है । साधक निश्चिंत हो जाता है ।
उसे किसी प्रकार की चिंता, किसी प्रकार की शंका, किसी प्रकार का भय नहीं रहा करता। He is in the most safe hands.
ऐसा विश्वास जब होता है,
तुलसी की याद आती है, भक्तजनो आज पहले तुलसी की बात शुरू करते हैं ।
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