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Shiv Mahapuran Episode 66 महामृत्युंजय मंत्र Shiv @sartatva
Shiv Mahapuran Episode 66 महामृत्युंजय मंत्र Shiv @sartatva
The Maha Mrityunjaya mantra is a powerful and ancient Sanskrit chant that is addressed to Lord Shiva, the supreme deity of Hinduism. It is believed to have the ability to protect and heal the physical, mental, and spiritual aspects of life. It is also known as the "Great Death-conquering mantra" or the "Moksha mantra" as it can liberate one from the cycle of birth and death. It can ward off evil and negative energies, creating a protective shield around the one who recites it regularly, strengthen the immune system, boost energy levels, speed up the healing process of injuries and illnesses, prevent premature death, bestow immortality, long life to the devotee, remove any kind of dosha, Maas, Gochara, or Antar-Dasha in one's horoscope, bring prosperity and happiness to life, help in making the right decision when faced with a perplexing or challenging situation, calm the mind, reduce stress, enhance concentration, connect one to their own inner divinity and wisdom.
To chant this mantra, one should sit facing the east direction, pray to Lord Shiva, and repeat the following verse 108 times:
Om Tryambakam Yajamahe
Sugandhim Pushtivardhanam
Urvarukamiva Bandhanan
Mrityor Mukshiya Maamritat
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय ३८
श्रीविष्णु की पराजय में दधीचि मुनि के शाप को कारण बताते हुए दधीचि और क्षुव के विवाद का इतिहास, मृत्युंजय-मन्त्र के अनुष्ठान से दधीचि की अवध्यता तथा श्रीहरिका क्षुव को दधीचि की पराजय के लिये यत्न करने का आश्वासन
सूतजी कहते हैं – महर्षियो! अमित बुद्धिमान् ब्रह्मजी की कही हुई यह कथा सुनकर द्विजश्रेष्ठ नारद विस्मय में पड़ गये। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक प्रश्न किया।
नारदजी ने पूछा – पिताजी! भगवान् विष्णु शिवजी को छोड़कर अन्य देवताओं के साथ दक्ष के यज्ञ में क्यों चले गये, जिसके कारण वहाँ उनका तिरस्कार हुआ? क्या वे प्रलयकारी पराक्रमवाले भगवान् शंकर को नहीं जानते थे? फिर उन्होंने अज्ञानी पुरुष की भाँति रुद्रगणों के साथ युद्ध क्यों किया? करुणानिधे! मेरे मन में यह बहुत बड़ा संदेह है। आप कृपा करके मेरे इस संशय को नष्ट कर दीजिये और प्रभो! मन में उत्साह पैदा करनेवाले शिवचरित को कहिये।
ब्रह्मीजी ने कहा – नारद! पूर्वकाल में राजा क्षुव की सहायता करनेवाले श्रीहरि को दधीचि मुनि ने शाप दे दिया था, जिससे उस समय वे इस बात को भूल गये और वे दूसरे देवताओं को साथ ले दक्ष के यज्ञ में चले गये। दधीचि ने क्यों शाप दिया, यह सुनो। प्राचीनकाल में क्षुव नाम से प्रसिद्ध एक महातेजस्वी राजा हो गये हैं। वे महाप्रभावशाली मुनीश्वर दधीचि के मित्र थे। दीर्घकाल की तपस्या के प्रसंग से क्षुव और दधीचि में विवाद आरम्भ हो गया, जो तीनों लोकों में महान् अनर्थकारी के रूप में विख्यात हुआ। उस विवाद में वेद के विद्वान् शिवभक्त दधीचि कहते थे कि शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय – इन तीनों वर्णो से ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है, इसमें संशय नहीं है। महामुनि दधीचि की वह बात सुनकर धन-वैभव के मद से मोहित हुए राजा क्षुव ने उसका इस प्रकार प्रतिवाद किया।
क्षुव बोले – राजा इन्द्र आदि आठ लोकपालों के स्वरूप को धारण करता है। वह समस्त वर्णों और आश्रमों का पालक एवं प्रभु है। इसलिये राजा ही सबसे श्रेष्ठ है। राजा की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करने वाली श्रुति भी कहती है कि राजा सर्वदेवमय है। मुने! इस श्रुति के कथनानुसार जो सबसे बड़ा देवता है, वह में ही हूँ। इस विवेचन से ब्राह्मण की अपेक्षा राजा ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है। च्यवननन्दन! आप इस विषय में विचार करें और मेरा अनादर न करें; क्योंकि मैं सर्वथा आपके लिये पूजनीय हूँ।
राजा क्षुव का यह मत श्रुतियों और विष्णु और स्मृतियों के विरुद्ध था। इसे सुनकर भृगुकुलभूषण मुनिश्रेष्ठ दधीचि को बड़ा क्रोध हुआ। मुने! अपने गौरव का विचार करके कुषित हुए महातेजस्वी दधीचि ने क्षुव के मस्तक पर बायें मुक्के से प्रहार किया। उनके मुक्के की मार खाकर ब्रह्माण्ड के अधिपति कुत्सित बुद्धिवाले क्षुव अत्यन्त कुपित हो गरज उठे और उन्होंने वज्र से दधीचि को काट डाला। उस वज्र से आहत हो भृगुवंशी दधीचि पृथ्वी पर गिर पड़े। भार्गवबंशधर दधीचि ने गिरते समय शुक्राचार्य का स्मरण किया। योगी शुक्राचार्य ने आकर दधीचि के शरीर को, जिसे क्षुव ने काट डाला था, तुरंत जोड़ दिया। दधीचि के अंगों को पूर्ववत् जोड़कर शिवभक्त शिरोमणि तथा मृत्युंजय-विद्या के प्रवर्तक शुक्राचार्य ने उनसे कहा।
शुक्र बोले – तात दधीचि! मैं सर्वेश्वर भगवान् शिव का पूजन करके तुम्हें श्रुतिप्रतिपादित महामृत्युंजय नामक श्रेष्ठ मन्त्र का उपदेश देता हूँ।
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