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Pravachan Shree Vishwamitra ji Maharaj
परम पूज्य डॉक्टर श्री विश्वामित्र जी महाराज जी के मुखारविंद से
((1035))
*श्री भक्ति प्रकाश भाग ५५२(552*
*नाना उक्तियां भाग-३*
*कटु वाणी पर चर्चा*
कहानी इस प्रकार की है कि, संत को किसी कारणवश कोई अपराध नहीं, कुछ नहीं, राजा ने पकड़ लिया । कहा इसे वैसे नहीं मारूंगा । किसी शेर के आगे डाल दूंगा । अपने आप मर जाएगा । संयोग की बात कहिएगा, कैसे भी कहिएगा, वही शेर जिसकी जान इस संत ने बचाई थी,
उसी शेर से सामना हुआ । उसी पिंजरे में पकड़ लिया, उसी शेर के पिंजरे में डाला ।
शेर ने सूंघा । इसे चरणों में प्रणाम किया, प्यार किया, खाने से इंकार कर दिया ।
उनके अंदर भी हृदय हैं प्रेम को । प्रेम एक ऐसी भाषा है, देवियों सज्जनों, जिसे हर कोई पहचानता है । इंसान ही कभी-कभी मूढ़ता करता है, लेकिन प्रेम को हर कोई पहचानता है ।
बात चल रही थी, एक शेर की और एक ब्राह्मण की मित्रता हो गई । ऐसी घनिष्ट मित्रता, रहता तो जंगल में ही है शेर, लेकिन कभी-कभी मित्र को मिलने के लिए आ जाता है । और यह ब्राह्मण भी कभी-कभी जंगल में अकेला अपने मित्र को मिलने के लिए जाता है । दोनों का आना जाना बना हुआ है । आज यह घर पहुंचा ही है, शेर मिलने के लिए आया है अपने मित्र को ।
उस वक्त ब्राह्मणि ब्राह्मण को कोस रही है। मित्र भी बनाया तो कैसा मित्र बनाया ?
मुख से बास आती है । पशु खाता है, बंदा खाता है । ना जाने तुम्हें कब खा जाए,
ना जाने मुझे कब खा जाए । कैसे विश्वास किया जाए इसके ऊपर ।
द्वार पर खड़े शेर ने यह सारी की सारी बात सुन ली । सारी की सारी बात सुन कर तो अपनी मित्रता पर बड़ी शर्मिंदगी महसूस कर रहा है । इस पत्नी की दृष्टि में, इस नारी की दृष्टि में, मैं विश्वसनीय मित्र नहीं हूं । भीतर आया है । आकर ब्राह्मण से कहा -
मित्र एक काम कर । एक कुल्हाड़ी ला । शेर का हुक्म है, कुल्हाड़ी आ गई । बहुत जोर से मेरे सिर पर मार । यदि तू मारने से इंकार करेगा, तो मैं तुम्हें खा जाऊंगा । यदि तूने किसी ढंग से मेरा लिहाज किया, जैसे जोर से मैं कह रहा हूं, ऐसे जोर से कुल्हाड़ी नहीं मारी, तो मैं तब भी तुम्हें खा जाऊंगा । जितनी जोर से मार सकते हो, जितनी तुम्हारे अंदर ताकत है, उतने जोर से मेरे सिर पर कुल्हाड़ी मारो । अपना सर नीचे कर दिया ।
ब्राह्मण ने डरते डरते बहुत जोर से कुल्हाड़ी उसके सिर पर मार दी । खून ऐसे जैसे परनाला, बरसात का मौसम होता है तो परनाले गिरते हैं, पानी गिरता जाता है, ऐसे परनाला । शेर ने अपना मुख मोड़ा सीधा जंगल की ओर, सारा नगर, गांव भागता लांघता हुआ, अपना खून बिखेरता हुआ, शेर जंगल की ओर चला गया है । तीन महीने तक मित्र का कोई आना-जाना बिल्कुल
नहीं ।
किसने इलाज किया होगा ।
हम कहते हैं साधक जनों जो भगवत भजन करता है, योगक्षेम उनका परमात्मा चलाता है । इनका कौन चलाता है । यह कौन सा कोई भजन पाठ करते हैं । अरे योगक्षेम चलाना परमात्मा का कर्तव्य है । वह निभाता है । कोई शर्त नहीं उसकी, की इतना भजन पाठ करोगे, तो मैं तुम्हारा योगक्षेम
चलाऊंगा । जंगल में बैठे हुए क्या भजन पाठ करते हैं । इन्हें भजन पाठ का पता ही नहीं । लेकिन कौन चलाता है इनका
योगक्षेम । सागर के तले में बैठे हुए जीव, कौन उन्हें खाने को देता है । कौन है परमात्मा के सिवाय, जो यह सब कुछ कर सकता है ।
तीन महीने में देवी जख्म बिल्कुल भर गया। जहां भारी जख्म था बिल्कुल भर गया, बाल तक आ गए ।
आज तीन महीने के बाद की बात ।
अपने मित्र से मिलने के लिए शेर गया है। जाकर ब्राह्मण देवता से कहा मित्र -
तेरा दिया हुआ जख्म तो भर गया ।
देख, ना जख्म है, कोई नामोनिशान ही नहीं है । लेकिन तेरी पत्नी का दिया हुआ जख्म, अभी तक बिल्कुल ताजा का ताजा है । तूने कुल्हाड़ी से जख्म दिया था, उसने जिव्हा से जख्म दिया है । वचन के तीर से जो जख्म दिए जाते हैं, साधक जनों वह बड़े गहरे, बड़े गंभीर, बड़े विषैले होते हैं ना जख्म भरता है, ना पीड़ा ही खत्म होती है । जितना मर्जी फिर पश्चाताप कर लो, पश्चाताप तो अपने लिए है, लेकिन जिसको आपने जख्म दे दिया, उसके लिए तो कोई पश्चाताप नहीं है। वह तो बेचारा पीड़ा से तड़प रहा है ।
वह अभी तक भूला नहीं है ।
स्वामी जी महाराज अगली उक्ति कहते हैं “कर्म करो ऐसे भले जैसे फल की मांग” Different statements,
Next important statement
“कर्म करो ऐसे भले जैसे फल की मांग,
इक्षु रस की मधुरता मिले ना बो कर भांग” इक्षु गन्ने को कहते हैं । गन्ने का रस पीना चाहते हो तो आपको गन्ना भांग बो कर तो नहीं मिलेगा । कितनी स्पष्ट बात स्वामी जी महाराज ने लिखी है
“जैसी करनी वैसा फल
आज नहीं तो निश्चय कल”
अकाट्य सिद्धांत है कर्म का साधक जनों। कोई इससे बच नहीं सकता ।
संत महात्मा, देवी देवता, कोई इससे प्राणी, जीव इससे बच नहीं सकता । कर्म सिद्धांत तो यह कहता है ।
हां दूसरे सिद्धांत है जो इनसे बचने का ढंग हमें सुझाते हैं । सामान्यता नियम यही है। कर्म का अकाट्य सिद्धांत है यह ।
फल दिए बिना आपका पीछा नहीं छोड़ेगा । इस जन्म में संभव है तो इस जन्म में, अगले जन्म में, उससे अगले जन्म में, उससे अगले जन्म में, यहां फल देना संभव है तो यहां, अमेरिका में फल देने की जरूरत है, तो कर्म वहां आपके पीछे जाएगा । छोड़ेगा नहीं आपको । अकाट्य सिद्धांत है इसका । इस सिद्धांत को जानने से यही सीखना है ना, हम कहीं भी हैं, कैसे भी है हमें कर्म शुद्ध करने चाहिए, यदि फल शुभ चाहते हैं तो ।
“कर्म करो ऐसे भले जैसे फल की मांग” जैसा फल चाहते हो, वैसा कर्म करो ।
स्वामी जी महाराज का समझाने का ढंग कितना सुंदर है
“कर्म करो ऐसे भले जैसे फल की मांग”
इक्षु रस की मधुरता मिले ना बो कर भांग” भांग बो कर तो आपको गन्ना नहीं मिल सकेगा । भांग ही खानी पड़ेगी ।
कल करेंगे साधक जनों इसकी चर्चा ।
सुंदर चर्चा है । सो कल करेंगे । आज यहीं समाप्त करने की इजाजत दीजिएगा । धन्यवाद ।
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