Shiv mahapuran episode 59 माता सती ने यज्ञशाला मैं प्राण-त्याग का निश्चय क्यों किया ? @sartatva
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शिवपुराण रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय २९
यज्ञशाला में शिव का भाग न देखकर सती के रोषपूर्ण वचन, दक्ष द्वारा शिव की निन्दा सुन दक्ष तथा देवताओं को धिक्कार-फटकार कर सती द्वारा अपने प्राण-त्याग का निश्चय
माता सती ने यज्ञशाला में प्राण-त्याग का निश्चय इसलिए किया क्योंकि उन्होंने अपने पति, भगवान शिव, की अनुमति के बिना दक्ष के शिवद्रोह का ज्ञान प्राप्त किया था। वे देवी सती के पिता दक्ष राजा द्वारा भगवान शिव की निन्दा और अपमान करने के कारण बहुत दुखी थे। सती ने इस निन्दा को सहन नहीं कर सकी और अपने प्रेम और सम्मान के प्रतीक रूप में पति के साथ एकाग्रता से प्रवेश करने का निर्णय लिया। इस प्रकार, उन्होंने अपनी आत्मा को यज्ञशाला में त्याग दिया और प्राण त्याग किया। यह उनका एक महान बलिदान था जो शिवभक्ति और अपने पति के प्रति उनके अटूट प्रेम का प्रतीक बना।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! दक्षकन्या सती उस स्थान पर गयीं, जहाँ वह महान् प्रकाश से युक्त यज्ञ हो रहा था। वहाँ देवता, असुर और मुनीन्द्र आदि के द्वारा कौतूहलपूर्ण कार्य हो रहे थे। सती ने वहाँ अपने पिता के भवन को नाना प्रकार की आश्चर्यजनक वस्तुओं से सम्पन्न, उत्तम प्रभा से परिपूर्ण, मनोहर तथा देवताओं और ऋषियों के समुदाय से भरा हुआ देखा। देवी सती भवन के द्वार पर जाकर खड़ी हुईं और अपने वाहन नन्दी से उतरकर अकेली ही शीकघ्रतापूर्वक यज्ञशाला के भीतर चली गयीं। सती को आयी देख उनकी यशस्विनी माता असिकनी (वीरिणी)-ने और बहिनों ने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया। परंतु दक्ष ने उन्हें देखकर भी कुछ आदर नहीं किया तथा उन्हीं के भय से शिव की माया से मोहित हुए दूसरे लोग भी उनके प्रति आदर का भाव न दिखा सके। मुने! सब लोगों के द्वारा तिरस्कार प्राप्त होने से सती देवी को बड़ा विस्मय हुआ तो भी उन्होंने अपने माता-पिता के चरणों में मस्तक झुकाया। उस यज्ञ में सती ने विष्णु आदि देवताओं के भाग देखे, परंतु शम्भु का भाग उन्हें कहीं नहीं दिखायी दिया। तब सती ने दुस्सह क्रोध प्रकट किया। वे अपमानित होने पर भी रोष से भरकर सब लोगों की ओर क्रूर दृष्टि से देखती और दक्ष को जलाती हुई-सी बोलीं।
सती ने कहा – प्रजापते! आपने परम मंगलकारी भगवान् शिव को इस यज्ञ में क्यों नहीं बुलाया? जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर जगत् पवित्र होता है, जो स्वयं ही यज्ञ, यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ, यज्ञ के अंग, यज्ञ की दक्षिणा और यज्ञकर्ता यजमान हैं, उन भगवान् शिव के बिना यज्ञ की सिद्धि कैसे हो सकती है? अहो! जिनके स्मरण करने मात्र से सब कुछ पवित्र हो जाता है, उन्हीं के बिना किया हुआ यह सारा यज्ञ अपवित्र हो जायगा। द्रव्य, मन्त्र आदि, हव्य और कव्य – ये सब जिनके स्वरूप हैं, उन्हीं भगवान् शिव के बिना इस यज्ञ का आरम्भ कैसे किया गया? क्या आपने भगवान् शिव को सामान्य देवता समझ कर उनका अनादर किया है? आज आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। इसलिये आप पिता होकर भी मुझे अधम जँच रहे हैं। अरे! ये विष्णु और ब्रह्मा आदि देवता तथा मुनि अपने प्रभु भगवान् शिव के आये बिना इस यज्ञ में कैसे चले आये?
ऐसा कहने के बाद शिवस्वरूपा परमेश्वरी सती ने भगवान् विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र आदि सब देवताओं को तथा समस्त ऋषियों को बडे कड़े शब्दों में फटकारा।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार क्रोध से भरी हुई जगदम्बा सती ने वहाँ व्यथित हृदय से अनेक प्रकार की बातें कहीं। श्रीविष्णु आदि समस्त देवता और मुनि जो वहाँ उपस्थित थे, सती की बात सनकर चुप रह गये। अपनी पुत्री के वेसे वचन सुनकर कुपित हुए दक्ष ने सती की ओर क्रूर दृष्टि से देखा और इस प्रकार कहा।
दक्ष बोले – भद्रे! तुम्हारे बहुत कहने से कया लाभ। इस समय यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है। तुम जाओ या ठहरो, यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। तुम यहाँ आयी ही क्यों? समस्त विद्वान जानते हैं कि तुम्हारे पति शिव अमंगल रूप हैं। वे कुलीन भी नहीं हैं। वेद से बहिष्कृत हैं और भूतों, प्रेतों तथा पिशाचों के स्वामी हैं। वे बहुत ही कुवेष धारण किये रहते हैं। इसीलिये रुद्र को इस यज्ञ के लिये नहीं बुलाया गया है। बेटी! मैं रुद्र को अच्छी तरह जानता हूँ। अतः जान-बूझकर ही मैंने देवर्षियों की सभा में उनको आमन्त्रित नहीं किया है। रुद्र को शास्त्र के अर्थ का ज्ञान नहीं है। वे उद्दण्ड और दुरात्मा हैं। मुझ मृढ़ पापी ने ब्रह्मजी के कहने से उनके साथ तुम्हारा विवाह कर दिया था। अतः शुचिस्मिते! तुम क्रोध छोड़कर स्वस्थ (शान्त) हो जाओ। इस यज्ञ में तुम आ ही गयी तो स्वयं अपना भाग (या दहेज) ग्रहण करो। दक्ष के ऐसा कहने पर उनकी त्रिभवन-पूजिता पुत्री सती ने शिव की निन्दा करनेवाले अपने पिता की ओर जब दृष्टिपात किया, तब उनका रोष और भी बढ़ गया।
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