Shiv mahapuran episode 56 नंदी जी की किस श्राप के कारन ब्राह्मणों को दरिद्रता मिली? shiv @sartatva
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शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय २६
प्रयाग में समस्त महात्मा मुनियों द्वारा किये गये यज्ञ में दक्ष का भगवान् शिव को तिरस्कारपूर्वक शाप देना तथा नन्दी द्वारा ब्राह्मण कुल को शाप-प्रदान, भगवान् शिव का नन्दी को शान्त करना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! पूर्वकाल में समस्त महात्मा मुनि प्रयाग में एकत्र हुए थे। वहाँ सम्मिलित हुए उन सब महात्माओं का विधि-विधान से एक बहुत बड़ा यज्ञ हुआ। उस यज्ञ में सनकादि सिद्धगण, देवर्षि, प्रजापति, देवता तथा ब्रह्म का साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानी भी पधारे थे। मैं भी मूर्तिमान् महातेजस्वी निगमों और आगमों से युक्त हो सपरिवार वहाँ गया था। अनेक प्रकार के उत्सवों के साथ वहाँ उनका विचित्र समाज जुटा था। नाना शास्त्रों के सम्बन्ध में ज्ञान-चर्चा एवं वाद-विवाद हो रहे थे। मुने! उसी अवसर पर सती तथा पार्षदों के साथ त्रिलोकहितकारी, सृष्टिकर्ता एवं सबके स्वामी भगवान् रुद्र भी वहाँ आ पहुँचे। भगवान् शिव को आया देख सम्पूर्ण देवताओं, सिद्धों तथा मुनियों ने और मैंने भी भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। फिर शिव की आज्ञा पाकर सब लोग प्रसन्नतापूर्वक यथास्थान बैठ गये। भगवान् का दर्शन पाकर सब लोग संतुष्ट थे और अपने सौभाग्य की सराहना करते थे। इसी बीच में प्रजापतियों के भी पति प्रभु दक्ष, जो बड़े तेजस्वी थे, अकस्मात् घूमते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आये। वे मुझे प्रणाम करके मेरी आज्ञा ले वहाँ बैठे। दक्ष उन दिनों समस्त ब्रह्माण्ड के अधिपति बनाये गये थे, अतएव सबके द्वारा सम्माननीय थे। परंतु अपने इस गौरवपूर्ण पद को लेकर उनके मन में बड़ा, अहंकार था; क्योंकि वे तत्त्वज्ञान से शून्य थे। उस समय समस्त देवर्षियों ने नतमस्तक हो स्तुति और प्रणाम के द्वारा दोनों हाथ जोड़कर उत्तम तेजस्वी दक्ष का आदर-सत्कार किया। परंतु जो नाना प्रकार के लीलाविहार करनेवाले, सबके स्वामी और उत्कृष्ट लीलाकारी स्वतन्त्र परमेश्वर हैं, उन महेश्वर ने उस समय दक्ष को मस्तक नहीं झुकाया। वे अपने आसन पर बैठे ही रह गये (खड़े होकर दक्ष का स्वागत नहीं किया)। महादेवजी को वहाँ मस्तक झुकाते न देख मेरे पुत्र प्रजापति दक्ष मन-ही-मन अप्रसन्न हो गये। उन्हें रुद्र पर सहसा क्रोध हो आया, वे ज्ञानशून्य तथा महान् अहंकारी होने के कारण महाप्रभु रुद्र को क्रूर दृष्टि से देखकर सबको सुनाते हुए उच्च स्वर से कहने लगे।
दक्ष ने कहा – ये सब देवता, असुर, श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा ऋषि मुझे विशेष रूप से मस्तक झुकाते हैं। परंतु वह जो प्रेतों और पिशाचों से घिरा हुआ महामनस्वी बनकर बैठा है, वह दुष्ट मनुष्य के समान क्यों मुझे प्रणाम नहीं करता? श्मशान में निवास करने वाला यह निर्लज्ज जो मुझे इस समय प्रणाम नहीं करता, इसका क्या कारण है? इसके वेदोक्त कर्म लुप्त हो गये हैं। यह भूतों और पिशाचों से सेवित हो मतवाला बना फिरता हैं और शास्त्रीय विधि की अवहेलना करके निति मार्ग को सदा कलंकित किया करता है। इसके साथ रहनेवाले या इसका अनुसरण करने वाले लोग पाखण्डी, दुष्ट, पापाचारी तथा ब्राह्मण को देखकर उद्दण्डतापूर्वक उसकी निन्दा करने वाले होते हैं। यह स्वयं ही स्त्री में आसक्त रहनेवाला तथा रतिकर्म में ही दक्ष है। अतः मैं इसे शाप देने को उद्यत हुआ हूँ। यह रुद्र चारों वर्णों से पृथक् और कुरूप है। इसे यज्ञ से बहिष्कृत कर दिया जाय। यह श्मशान में निवास करनेवाला तथा उत्तम कुल और जन्म से हीन है। इसलिये देवताओं के साथ यह यज्ञ में भाग न पाये।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! दक्ष की कही हुई यह बात सुनकर भृगु आदि बहुत-से महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट मानकर देवताओं के साथ उनकी निन्दा करने लगे। दक्ष की बात सुनकर नन्दी को बड़ा रोष हुआ। उनके नेत्र चंचल हो उठे और वे दक्ष को शाप देने के विचार से तुरंत इस प्रकार बोले।
नन्दीश्वर ने कहा – अरे रे महामूढ़! दुष्टबुद्धि शठ दक्ष! तूने मेरे स्वामी महेश्वर को यज्ञ से बहिष्कृत क्यों कर दिया? जिनके स्मरणमात्र से यज्ञ सफल और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं, उन्हीं महादेवजी को तूने शाप कैसे दे दिया? दुर्बुद्धि दक्ष! तूने ब्राह्मणजाति की चपलता से प्रेरित हो इन रुद्रदेव को व्यर्थ ही शाप दे डाला है। महाप्रभु रुद्र सर्वथा निर्दोष हैं, तथापि तूने व्यर्थ ही उनका उपहास किया है। ब्राह्मणाधम! जिन्होंने इस जगत् की सृष्टि की, जो इसका पालन करते हैं और अन्त में जिनके द्वारा इसका संहार होगा, उन्ही इन महेश्वर रूप को तूने शाप कैसे दे दिया।
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