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Shiv mahapuran episode 55 क्यों शिव ने सती का त्याग किया ? shiv puran katha @sartatva
Shiv mahapuran episode 55 क्यों शिव ने सती का त्याग किया ? shiv puran katha @sartatva
शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय २५
श्रीशिव के द्वारा गोलोक धाम में श्रीविष्णु का गोपेश के पद पर अभिषेक तथा उनके प्रति प्रणाम का प्रसंग सुनाकर श्रीराम का सती के मन का संदेह दूर करना, सती का शिव के द्वारा मानसिक त्याग
श्रीराम बोले – देवि! प्राचीन काल में एक समय परम स्रष्टा भगवान् शम्भु ने अपने परात्पर धाम में विश्वकर्मा को बुलाकर उनके द्वारा अपनी गोशाला में एक रमणीय भवन बनवाया, जो बहुत ही विस्तृत था। उसमें एक श्रेष्ठ सिंहासन का भी निर्माण कराया। उस सिंहासन पर भगवान् शंकर ने विश्वकर्मा द्वारा एक छत्र बनवाया, जो बहुत ही दिव्य, सदा के लिये अद्भुत और परम उत्तम था। तत्पश्चात् उन्होंने सब ओर से इन्द्र आदि देवगणों, सिद्धों, गन्धर्वों, नागादि कों तथा सम्पूर्ण उपदेवों को भी शीघ्र वहाँ बुलवाया। समस्त वेदों और आगमों को, पुत्रों सहित ब्रह्माजी को, मुनियों को तथा अप्सराओं सहित समस्त देवियों को, जो नाना प्रकार की वस्तुओं से सम्पन्न थीं, आमन्त्रित किया। इनके सिवा देवताओं, ऋषियों, सिद्धों और नागों की सोलह-सोलह कन्याओं को भी बुलवाया, जिनके हाथों में मांगलिक वस्तुएँ थीं। मुने! वीणा, मृदंग आदि नाना प्रकार के वाद्यों को बजवाकर सुन्दर गीतों द्वारा महान् उत्सव रचाया। सम्पूर्ण ओषधियों के साथ राज्याभिषेक के योग्य द्रव्य एकत्र किये गये। प्रत्यक्ष तीर्थो के जलों से भरे हुए पाँच कलश भी मँगवाये गये। इनके सिवा और भी बहुत-सी दिव्य सामग्रियों को भगवान् शंकर ने अपने पार्षदों द्वारा मँगवाया और वहाँ उच्च स्वर से वेदमन्त्रों का घोष करवाया।
देवि! भगवान् विष्णु की पूर्ण भक्ति से महेश्वर देव सदा प्रसन्न रहते थे। इसलिये उन्होंने प्रीतियुक्त हृदय से श्रीहरि को वैकुण्ठ से बुलवाया और शुभ मुहूर्त में श्रीहरि को उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बिठाकर महादेवजी ने स्वयं ही प्रेमपूर्वक उन्हें सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया। उनके मस्तक पर मनोहर मुकुट बाँधा गया और उनसे मंगल-कौतुक कराये गये। यह सब हो जाने के बाद महेश्वर ने स्वयं ब्रह्माण्ड-मण्डप में श्रीहरि का अभिषेक किया और उन्हें अपना वह सारा ऐएवर्य प्रदान किया, जो दूसरों के पास नहीं था। तदनन्तर स्वतन्त्र ईश्वर भक्तवत्सल शम्भु ने श्रीहरि का स्तवन किया और अपनी पराधीनता (भक्तपरवशता) – को सर्वत्र प्रसिद्ध करते हुए वे लोककर्ता ब्रह्मा से इस प्रकार बोले।
महेश्वर ने कहा – लोकेश! आज से मेरी आज्ञा के अनुसार ये विष्णु हरि स्वयं मेरे वन्दनीय हो गये। इस बात को सभी सुन रहे हैं। तात! तुम सम्पूर्ण देवता आदि के साथ इन श्रीहरि को प्रणाम करो और ये वेद मेरी आज्ञा से मेरी ही तरह इन श्रीहरि का वर्णन करें।
श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं – देवि! भगवान् विष्णु की शिव भक्ति देखकर प्रसन्नचित्त हुए वरदायक भक्तवत्सल रुद्रदेव ने उपर्युक्त बात कहकर स्वयं ही श्रीगरुडध्वज को प्रणाम किया। तदनन्तर ब्रह्मा आदि देवताओं, मुनियों और सिद्ध आदि ने भी उस समय श्रीहरि की वन्दना की। इसके बाद अत्यन्त प्रसन्न हुए भक्तवत्सल महेश्वर ने देवताओं के समक्ष श्रीहरि को बड़े-बड़े वर प्रदान किये।
महेश बोले – हरे! तुम मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण लोकों के कर्ता, पालक और संहारक होओ। धर्म, अर्थ और काम के दाता तथा दुर्नीति अथवा अन्याय करनेवाले दुष्टों को दण्ड देने वाले होओ; महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न, जगत्पूज्य जगदीश्वर बने रहो। समरांगण में तुम कहीं भी जीते नहीं जा सकोगे। मुझसे भी तुम कभी पराजित नहीं होओगे। तुम मुझसे मेरी दी हुई तीन प्रकार की शक्तियाँ ग्रहण करो। एक तो इच्छा आदि की सिद्धि, दूसरी नाना प्रकार की लीलाओं को प्रकट करने की शक्ति और तीसरी तीनों लोकों में नित्य स्वतन्त्रता। हरे! जो तुमसे द्वेष करनेवाले हैं, वे निश्चय ही मेरे द्वारा प्रयत्नपूर्वक दण्डनीय होंगे। विष्णो! मैं तुम्हारे भक्तों को उत्तम मोक्ष प्रदान करूँगा। तुम इस माया को भी ग्रहण करो, जिसका निवारण करना देवता आदि के लिये भी कठिन है तथा जिससे मोहित होने पर यह विश्व जडरूप हो जायगा। हरे! तुम मेरी बायीं भुजा हो और विधाता दाहिनी भुजा हैं। तुम इन विधाता के भी उत्पादक और पालक होओगे। मेरा हृदय रूप जो रुद्र है, वही मैं हूँ – इसमें संशय नहीं है। वह रुद्र तुम्हारा और ब्रह्मा आदि देवताओं का भी निश्चय ही पूज्य है। तुम यहाँ रहकर विशेष रूप से सम्पूर्ण जगत् का पालन करो। नाना प्रकार की लीलाएँ करनेवाले विभिन्न अवतारों द्वारा सदा सबकी रक्षा करते रहो। मेरे चिन्मय धाम में तुम्हारा जो यह परम वैभवशाली और अत्यन्त उज्ज्वल स्थान है, वह गोलोक नाम से विख्यात होगा। हरे! भूतल पर जो तुम्हारे अवतार होंगे, वे सबके रक्षक और मेरे भक्त होंगे। मैं उनका अवश्य दर्शन करूँगा। वे मेरे वर से सदा प्रसन्न रहेंगे।
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