shiv mahapuran episode 54 आखिर क्यों सती ने धारण किया था सीता का रूप ? shiv purana @sartatva
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शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय २४
दण्डकारण्य में शिव को श्रीराम के प्रति मस्तक झुकाते देख सती का मोह तथा शिव की आज्ञा से उनके द्वारा श्रीराम की परीक्षा
नारदजी बोले – ब्रह्मन्! विधे! प्रजानाथ! महाप्राज्ञ! दयानिधे! आपने भगवान् शंकर तथा देवी सती के मंगलकारी सुयश का श्रवण कराया है। अब इस समय पुनः प्रेमपूर्वक उनके उत्तम यश का वर्णन कीजिये। उन शिव-दम्पति ने वहाँ रहकर कौन-सा चरित्र किया था?
ब्रह्माजी ने कहा – मुने! तुम मुझसे सती और शिव के चरित्र का प्रेम से श्रवण करो। वे दोनों दम्पति वहाँ लौकिकी गति का आश्रय ले नित्य-निरन्तर क्रीडा किया करते थे। तदनन्तर महादेवी सती को अपने पति शंकर का वियोग प्राप्त हुआ, ऐसा कुछ श्रेष्ठ बुद्धिवाले विद्वानों का कथन है। परंतु मुने! वास्तव में उन दोनों का परस्पर वियोग कैसे हो सकता है? क्योंकि वे दोनों वाणी और अर्थ के समान एक-दूसरे से सदा मिले-जुले हैं, शक्ति और शक्तिमान् हैं तथा चित्स्वरूप हैं। फिर भी उनमें लीला-विषयक रुचि होने के कारण वह सब कुछ संघटित हो सकता है। सती और शिव यद्यपि ईश्वर हैं तो भी लौकिक रीति का अनुसरण करके वे जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सब सम्भव हैं। दक्षकन्या सती ने जब देखा कि मेरे पति ने मुझे त्याग दिया है, तब वे अपने पिता दक्ष के यज्ञ में गयीं और वहाँ भगवान् शंकर का अनादर देख उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। वे ही सती पुनः हिमालय के घर पार्वती के नाम से प्रकट हुईं और बड़ी भारी तपस्या करके उन्होंने विवाह के द्वारा पुनः भगवान् शिव को प्राप्त कर लिया।
सूतजी कहते हैं – महर्षियो! ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारदजी ने विधाता से शिवा और शिव के महान् यश के विषय में इस प्रकार पूछा।
नारदजी बोले – महाभाग विष्णुशिष्य! विधातः! आप मुझे शिवा और शिव के भाव तथा आचार से सम्बन्ध रखने वाले उनके चरित्र को विस्तारपूर्वक सुनाइये। तात! भगवान् शंकर ने अपने प्राणों से भी प्यारी धर्मपत्नी सती का किसलिये त्याग किया? यह घटना तो मुझे बड़ी विचित्र जान पड़ती है। अतः इसे आप अवश्य कहें। अज! आपके पुत्र दक्ष के यज्ञ में भगवान् शिव का अनादर कैसे हुआ? और वहाँ पिता के यज्ञ में जाकर सती ने अपने शरीर का त्याग किस प्रकार किया? उसके बाद वहाँ क्या हुआ? भगवान् महेश्वर ने क्या किया? ये सब बातें मुझसे कहिये। इन्हें सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है।
ब्रह्माजी ने कहा – मेरे पुत्रों में श्रेष्ठ! महाप्राज्ञ! तात नारद! तुम महर्षियों के साथ बड़े प्रेम से भगवान् चन्द्रमौलि का यह चरित्र सुनो। श्रीविष्णु आदि देवताओंसे सेवित परब्रह्म महेश्वर को नमस्कार करके मैं उनके महान् अद्भुत चरित्र का वर्णन आरम्भ करता हूँ। मुने! यह सब भगवान् शिव की लीला ही है। वे प्रभु अनेक प्रकार की लीला करनेवाले, स्वतन्त्र और निर्विकार हैं। देवी सती भी वैसी ही हैं। अन्यथा वैसा कर्म करने में कौन समर्थ हो सकता है। परमेश्वर शिव ही परब्रह्म परमात्मा हैं।
एक समय की बात है, तीनों लोकों में विचरनेवाले लीलाविशारद भगवान् रुद्र सती के साथ बैल पर आरूढ़ हो इस भूतल पर भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वे दण्डकारण्य में आये। वहाँ उन्होंने लक्ष्मण सहित भगवान् श्रीराम को देखा, जो रावण द्वारा छलपूर्वक हरी गयी अपनी प्यारी पत्नी सीता की खोज कर रहे थे। वे 'हा सीते!' ऐसा उच्च स्वर से पुकारते, जहाँ-तहाँ देखते और बारंबार रोते थे। उनके मन में विरह॒ का आवेश छा गया था। सूर्यवंश में उत्पन्न, वीर भूपाल, दशरथनन्दन, भरताग्रज श्रीराम आनन्द रहित हो लक्ष्मण के साथ वन में भ्रमण कर रहे थे और उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। उस समय उदारचेता पूर्णकाम भगवान् शंकर ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें प्रणाम किया और जय-जयकार करके वे दूसरी ओर चल दिये। भक्तवत्सल शंकर ने उस वन में श्रीराम के सामने अपने को प्रकट नहीं किया। भगवान् शिव की मोह में डालनेवाली ऐसी लीला देख सती को बड़ा विस्मय हुआ। वे उनकी माया से मोहित हो उनसे इस प्रकार बोलीं।
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