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shiv mahapuran episode 53 भगवान शिव ने रावण का त्याग क्यों किया ? shiv purana @sartatva
shiv mahapuran episode 53 भगवान शिव ने रावण का त्याग क्यों किया ? shiv purana @sartatva
शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय २१ - २३
सती का प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान् शिव द्वारा ज्ञान एवं नवधा भक्ति के स्वरूप का विवेचन
कैलास तथा हिमालय पर्वत पर श्रीशिव और सती के विविध विहारों का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के पश्चात् ब्रह्माजी ने कहा – मुने! एक दिन की बात है, देवी सती एकान्त में भगवान् शंकर से मिलीं और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं। प्रभु शंकर को पूर्ण प्रसन्न जान नमस्कार करके विनीत भाव से खड़ी हुई दक्षकुमारी सती भक्तिभाव से अंजलि बाँधे बोली।
सती ने कहा – देवदेव महादेव! करुणासागर! प्रभो! दीनोद्धारपरायण! महायोगिन्! मुझ पर कृपा कीजिये। आप परम पुरुष हैं। सबके स्वामी हैं। रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण से परे हैं। निर्गुण भी हैं, सगुण भी हैं। सबके साक्षी, निर्विकार और महाप्रभु हैं। हर! मैं धन्य हूँ, जो आपकी कामिनी और आपके साथ सुन्दर विहार करने वाली आपकी प्रिया हुई। स्वामिन्! आप अपनी भक्तवत्सलता से ही प्रेरित होकर मेरे पति हुए हैं। नाथ! मैंने बहुत वर्षों तक आप के साथ विहार किया है। महेशान! इससे मैं बहुत संतुष्ट हुई हूँ और अब मेरा मन उधर से हट गया है। देवेश्वर हर! अब तो मैं उस परम तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूँ, जो निरतिशय सुख प्रदान करने वाला है तथा जिसके द्वारा जीव संसार-दुःख से अनायास ही उद्धार पा सकता है। नाथ! जिस कर्म का अनुष्ठान करके विषयी जीव भी परम पद को प्राप्त कर ले और संसार बन्धन में न बँधे, उसे आप बताइये, मुझ पर कृपा कीजिये।
ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! इस प्रकार आदिशक्ति महेश्वरी सती ने केवल जीवों के उद्धार के लिये जब उत्तम भक्तिभाव के साथ भगवान् शंकर से प्रश्न किया, तब उनके उस प्रश्न को सुनकर स्वेच्छा से शरीर धारण करने वाले तथा योग के द्वारा भोग से विरक्त चित्तवाले स्वामी शिव ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सती से इस प्रकार कहा।
शिव बोले – देवि! दक्षनन्दिनी! महेश्वरि! सुनो; मैं उसी परमतत्त्व का वर्णन करता हूँ, जिससे वासनाबद्ध जीव तत्काल मुक्त हो सकता है। परमेश्वरि! तुम विज्ञान को परमतत्त्व जानो। विज्ञान वह है, जिसके उदय होने पर, 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है, ब्रह्म के सिवा दूसरी किसी बस्तु का स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरुष की बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है। प्रिये! वह विज्ञान दुर्लभ है। इस त्रिलोकी में उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है। वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरूप ही है, साक्षात्परात्पर ब्रह्म है। उस विज्ञान की माता है मेरी भक्ति, जो भोग और मोक्ष रूप फल प्रदान करने वाली है। वह मेरी कृपा से सुलभ होती है। भक्ति नौ प्रकार की बतायी गयी है। सती! भक्ति और ज्ञान में कौई भेद नहीं है। भक्त और ज्ञानी दोनों को ही सदा सुख प्राप्त होता है। जो भक्ति का विरोधी है, उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं ही होती। देवि! मैं सदा भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति के प्रभाव से जातिहीन नीच मनुष्यों के घरों में भी चला जाता हूँ, इसमें संशय नहीं है। सती! वह भक्ति दो प्रकार की है – सगुणा और निर्गुणा। जो वैधी (शास्त्रविधि से प्रेरित) और स्वाभावि की (हृदय के सहज अनुराग से प्रेरित) भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है तथा इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति होती है, वह निम्नकोटि की मानी गयी है। पूर्वोक्त सगुणा और निर्गुणा – ये दोनों प्रकार की भक्तियाँ नैष्ठिकी आर अनैष्ठिकी के भेद से दो भेदवाली हो जाती हैं। नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकार की जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक ही प्रकार की कही गयी है। विद्वान् पुरुष विहिता और अविहिता आदि भेद से उसे अनेक प्रकार की मानते हैं। इस द्विविध भक्तियों के बहुत-से भेद-प्रभेद होने के कारण इनके तत्त्व का अन्यत्र वर्णन किया गया है। प्रिये! मुनियों ने सगुणा और निर्गुणा दोनों भक्तियों के नौ अंग बताये हैं। दक्षनन्दिनी! मैं उन नवों अंगों का वर्णन करता हूँ, तुम प्रेम से सुनो। देवि! श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, सदा मेरा वन्दन, सख्य और आत्मसमर्पण – ये विद्वानों ने भक्ति के नौ अंग माने हैं। शिवे! भक्ति के उपांग भी बहुत-से बताये गये हैं।
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