Santan Gopal Stotra संपूर्ण संतान गोपाल स्तोत्र @sartatva
Santan Gopal Stotra संपूर्ण संतान गोपाल स्तोत्र @sartatva
यदि आप भी बाल गोपाल नंदलाल जैसे नटखट पुत्र की कामना करती हैं, या अपनी संतान को उन जैसा पराक्रमी और सबकी आंखों का तारा बनाना चाहती हैं, तो प्रतिदिन संतान गोपाल स्तोत्र का पाठ करें। ये पाठ आपके लिए वरदान सिद्ध होगा। इसकी महिमा का वर्णन धर्मशास्त्रों में भी मिलता है। संतान संबंधित हर समस्या का हल है ये पाठ। यदि किसी कारन आप यह पाठ नहीं कर सकतीं, तो हमारे Youtube channel, @sartatva को subscribe कर ले और रोज़ इस पाठ को सुने।
Santan Gopal Stotra is a prayer to Lord Krishna, who is also known as Santan Gopal, the protector of children. It is believed that chanting or listening to this stotra can help childless couples to conceive a son or daughter, and also bless them with good health, wealth and happiness. The stotra praises Lord Krishna in his various forms, such as the son of Devaki, the beloved of Rukmini, the cowherd boy, and the lotus-eyed lord. The stotra also expresses the devotee's surrender and devotion to Lord Krishna, and requests him to grant a child as a boon.
श्रीशं कमलपत्राक्षं देवकीनन्दनं हरिम् ।
सुतसम्प्राप्तये कृष्णं नमामि मधुसूदनम् ।।1।।
नमाम्यहं वासुदेवं सुतसम्प्राप्तये हरिम् ।
यशोदांकगतं बालं गोपालं नन्दनन्दनम् ।।2।।
अस्माकं पुत्रलाभाय गोविन्दं मुनिवन्दितम् ।
नमाम्यहं वासुदेवं देवकीनन्दनं सदा ।।3।।
गोपालं डिम्भकं वन्दे कमलापतिमच्युतम् ।
पुत्रसम्प्राप्तये कृष्णं नमामि यदुपुंगवम् ।।4।।
पुत्रकामेष्टिफलदं कंजाक्षं कमलापतिम् ।
देवकीनन्दनं वन्दे सुतसम्प्राप्तये मम ।।5।।
पद्मापते पद्मनेत्र पद्मनाभ जनार्दन ।
देहि में तनयं श्रीश वासुदेव जगत्पते ।।6।।
यशोदांकगतं बालं गोविन्दं मुनिवन्दितम् ।
अस्माकं पुत्रलाभाय नमामि श्रीशमच्युतम् ।।7।।
श्रीपते देवदेवेश दीनार्तिहरणाच्युत ।
गोविन्द मे सुतं देहि नमामि त्वां जनार्दन ।।8।।
भक्तकामद गोविन्द भक्तं रक्ष शुभप्रद ।
देहि मे तनयं कृष्ण रुक्मिणीवल्लभ प्रभो ।।9।।
रुक्मिणीनाथ सर्वेश देहि मे तनयं सदा ।
भक्तमन्दार पद्माक्ष त्वामहं शरणं गत: ।।10।।
देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत: ।।11।।
वासुदेव जगद्वन्द्य श्रीपते पुरुषोत्तम ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत: ।।12।।
कंजाक्ष कमलानाथ परकारुरुणिकोत्तम ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत: ।।13।।
लक्ष्मीपते पद्मनाभ मुकुन्द मुनिवन्दित ।
देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत: ।।14।।
कार्यकारणरूपाय वासुदेवाय ते सदा ।
नमामि पुत्रलाभार्थं सुखदाय बुधाय ते ।।15।।
राजीवनेत्र श्रीराम रावणारे हरे कवे ।
तुभ्यं नमामि देवेश तनयं देहि मे हरे ।।16।।
अस्माकं पुत्रलाभाय भजामि त्वां जगत्पते ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव रमापते ।।17।।
श्रीमानिनीमानचोर गोपीवस्त्रापहारक ।
देहि मे तनयं कृष्ण वासुदेव जगत्पते ।।18।।
अस्माकं पुत्रसम्प्राप्तिं कुरुष्व यदुनन्दन ।
रमापते वासुदेव मुकुन्द मुनिवन्दित ।।19।।
वासुदेव सुतं देहि तनयं देहि माधव ।
पुत्रं मे देहि श्रीकृष्ण वत्सं देहि महाप्रभो ।।20।।
डिम्भकं देहि श्रीकृष्ण आत्मजं देहि राघव ।
भक्तमन्दार मे देहि तनयं नन्दनन्दन ।।21।।
नन्दनं देहि मे कृष्ण वासुदेव जगत्पते ।
कमलानाथ गोविन्द मुकुन्द मुनिवन्दित ।।22।।
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।
सुतं देहि श्रियं देहि श्रियं पुत्रं प्रदेहि मे ।।23।।
यशोदास्तन्यपानज्ञं पिबन्तं यदुनन्दनम् ।
वन्देsहं पुत्रलाभार्थं कपिलाक्षं हरिं सदा ।।24।।
नन्दनन्दन देवेश नन्दनं देहि मे प्रभो ।
रमापते वासुदेव श्रियं पुत्रं जगत्पते ।।25।।
पुत्रं श्रियं श्रियं पुत्रं पुत्रं मे देहि माधव ।
अस्माकं दीनवाक्यस्य अवधारय श्रीपते ।।26।।
गोपालडिम्भ गोविन्द वासुदेव रमापते ।
अस्माकं डिम्भकं देहि श्रियं देहि जगत्पते ।।27।।
मद्वांछितफलं देहि देवकीनन्दनाच्युत ।
मम पुत्रार्थितं धन्यं कुरुष्व यदुनन्दन ।।28।।
याचेsहं त्वां श्रियं पुत्रं देहि मे पुत्रसम्पदम् ।
भक्तचिन्तामणे राम कल्पवृक्ष महाप्रभो ।।29।।
आत्मजं नन्दनं पुत्रं कुमारं डिम्भकं सुतम् ।
अर्भकं तनयं देहि सदा मे रघुनन्दन ।।30।।
वन्दे सन्तानगोपालं माधवं भक्तकामदम् ।
अस्माकं पुत्रसम्प्राप्त्यै सदा गोविन्दच्युतम् ।।31।।
ऊँकारयुक्तं गोपालं श्रीयुक्तं यदुनन्दनम् ।
कलींयुक्तं देवकीपुत्रं नमामि यदुनायकम् ।।32।।
वासुदेव मुकुन्देश गोविन्द माधवाच्युत ।
देहि मे तनयं कृष्ण रमानाथ महाप्रभो ।।33।।
राजीवनेत्र गोविन्द कपिलाक्ष हरे प्रभो ।
समस्तकाम्यवरद देहि मे तनयं सदा ।।34।।
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Shiv mahapuran episode 68 भगवान् शम्भु का योगस्थल @sartatva
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शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - - अध्याय ४०
देवताओं सहित ब्रह्मा का विष्णुलोक में जाकर अपना दुःख निवेदन करना, श्रीविष्णु का उन्हें शिव से क्षमा माँगने की अनुमति दे उनको साथ ले कैलास पर जाना तथा भगवान् शिव से मिलाना
This is a chapter from the Rudra Samhita of the Shiva Purana. It narrates the journey of Brahma, along with the gods and sages, to Vishnuloka and then to Mount Kailash to meet Lord Shiva. In this chapter, after hearing the sorrows of Brahma, gods, and sages, Lord Vishnu encourages everyone to go together to Mount Kailash and meet Lord Shiva to seek forgiveness. Narada Muni, the great Siddhas like Sanaka, Kubera, Kinnaras, Apsaras, and great sages are all on Mount Kailash and serve Lord Shiva with utmost joy.
नारदजी ने कहा – विधातः! महाप्राज्ञ! आप शिवतत्त्व का साक्षात्कार कराने वाले हैं। आपने यह बड़ी अद्भुत एवं रमणीय शिवलीला सुनायी है। तात! वीर वीरभद्र जब दक्ष के यज्ञ का विनाश करके कैलास पर्वत पर चले गये, तब क्या हुआ? यह हमें बताइये।
ब्रह्माजी बोले – नारद! रुद्रदेव के सैनिकों ने जिनके अंग-भंग कर दिये थे, वे समस्त पराजित देवता और मुनि उस समय मेरे लोक में आये। वहाँ मुझ स्वयम्भू को नमस्कार करके सबने बारंबार मेरा स्तवन किया। फिर अपने विशेष क्लेश को पूर्ण रूप से सुनाया। उसे सुनकर मैं पुत्रशोक से पीड़ित हो गया और अत्यन्त व्यग्र हो व्यथित चित्त से बड़ी चिन्ता करने लगा। फिर मैंने भक्तिभाव से भगवान् विष्णु का स्मरण किया। इससे मुझे समयोचित ज्ञान प्राप्त हुआ। तदनन्तर देवताओं और मुनियों के साथ मैं विष्णुलोक में गया और वहाँ भगवान् विष्णु को नमस्कार एवं नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करके उनसे अपना दुःख निवेदन किया। मैंने कहा – 'देव! जिस तरह भी यज्ञ पूर्ण हो, यजमान जीवित हो और समस्त देवता तथा मुनि सुखी हो जायँ, वैसा उपाय कीजिये। देवदेव! रमानाथ! देवसुखदायक विष्णो! हम देवता और मुनि निश्चय ही आपकी शरण में आये हैं।
मुझ ब्रह्मा की यह बात सुनकर भगवान् लक्ष्मीपति विष्णु, जिनका मन सदा शिव में लगा रहता है और जिनके हृदय में कभी दीनता नहीं आती, शिव का स्मरण करके इस प्रकार बोले।
श्रीविष्णु ने कहा – देवताओं! परम समर्थ तेजस्वी पुरुष से कोई अपराध बन जाय तो भी उसके बदले में अपराध करने वाले मनुष्यों के लिये वह अपराध मंगलकारी नहीं हो सकता। विधातः! समस्त देवता परमेश्वर शिव के अपराधी हैं; क्योंकि इन्होंने भगवान् शम्भु को यज्ञ का भाग नहीं दिया। अब तुम सब लोग शुद्ध हृदय से शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले उन भगवान् शिव के पैर पकड़ कर उन्हें प्रसन्न करो। उनसे क्षमा माँगो। जिन भगवान् के कुपित होने पर यह सारा जगत् नष्ट हो जाता है तथा जिनके शासन से लोकपालों सहित यज्ञ का जीवन शीघ्र ही समाप्त हो जाता है, वे भगवान् महादेव इस समय अपनी प्राणवल्लभा सती से बिछुड़ गये हैं तथा अत्यन्त दुरात्मा दक्ष ने अपने दुर्वचनरूपी बाणों से उनके हृदय को पहले से ही घायल कर दिया है; अतः तुम लोग शीघ्र ही जाकर उनसे अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगो। विधे! उन्हें शान्त करने का केवल यही सबसे बड़ा उपाय है। मैं समझता हूँ ऐसा करने से भगवान् शंकर को संतोष होगा। यह मैंने सच्ची बात कही है। ब्रह्मन्! मैं भी तुम सब लोगों के साथ शिव के निवास-स्थान पर चलूँगा और उनसे क्षमा माँगूँगा।
देवता आदि सहित मुझ ब्रह्मा को इस प्रकार आदेश देकर श्रीहरि ने देवगणों के साथ कैलास पर्वत पर जाने का विचार किया। तदनन्तर देवता, मुनि और प्रजापति आदि जिनके स्वरूप ही हैं, वे श्रीहरि उन सबको साथ ले अपने वैकुण्ठधाम से भगवान् शिव के शुभ निवास गिरिश्रेष्ठ कैलास को गये। कैलास भगवान् शिव को सदा ही अत्यन्त प्रिय है। मनुष्यों से भिन्न किंनर, अप्सराएँ और योगसिद्ध महात्मा पुरुष उसका भली-भांति सेवन करते हैं तथा वह पर्वत बहुत ही ऊँचा हैं। उसके निकट रुद्रदेव के मित्र कुबेर की अलका नामक महादिव्य एवं रमणीय पूरी है, जिसे सब देवताओं ने देखा। उस पूरी के पास ही सौगन्धिक वन भी देवताओं की दृष्टि में आया, जो सब प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा एवं दिव्य था। उसके भीतर सर्वत्र सुगंध फैलानेवाले सौगन्धिक नामक कमल खिले हुए थे। उसके बाहरी भाग में नन्दा और अलकनन्दा – ये दो अत्यन्त पावन दिव्य सरिताएँ बहती हैं, जो दर्शन मात्र से प्राणियों के पाप हर लेती है। यक्षराज कुबेर की अलकापुरी और सौगन्धिक वन को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते हुए देवताओं ने थोड़ी ही दूर पर शंकरजी के वटवृक्ष को देखा।
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Santan gopal mantra श्री कृष्ण संतान प्राप्ति मंत्र #sartatva
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श्री कृष्ण संतान प्राप्ति मंत्र के जाप करने का सर्वोत्तम समय - कभी भी, सुबह-सुबह नहाने के बाद
इस मंत्र का जाप कितनी बार करें - 96 दिनों के लिए दिन में 108 या 28 बार
श्री कृष्ण संतान प्राप्ति मंत्र का जाप कौन कर सकता हैं? - जो महिलाएं बच्चे को गर्भ धारण करने की कोशिश कर रही हैं
किस ओर मुख करके जाप करें - भगवान कृष्ण की मूर्ति
श्री कृष्ण संतान प्राप्ति मंत्र है:
।। ॐ क्लीं गोपालवेषधराय वासुदेवाय हुं फट स्वाहा ।।
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vastu tips for home बिना पैसा खर्च किए कैसे दूर करें अपने घर के सभी वास्तुदोष @sartatva
वास्तु विज्ञान के अनुसार, घर के मुख्य द्वार पर सिंदूर से नौ अंगुल लंबा और नौ अंगुल चौड़ा स्वास्तिक का चिन्ह बनाएं। ऐसा करने से चारों ओर से आ रही नकारात्मक ऊर्जा समाप्त होती है और हर मंगलकवार को यह उपाय करने से मंगल ग्रह से जुड़े दोष भी समाप्त होते हैं।
घर के उत्तर-पूर्व कोने में कलश रखें। कलश कहीं से भी खंडित नहीं होना चाहिए। हिंदू मान्यताओं के अनुसार कलश को भगवान गणेशजी का रूप माना जाता है। घर में कलश की स्थापना के बाद सभी कार्य बिना किसी बाधा के पूर्ण होते हैं।
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Shiv Stuti आशुतोष शशाँक शेखर,चन्द्र मौली चिदंबरा @sartatva
Shiv Stuti आशुतोष शशाँक शेखर,चन्द्र मौली चिदंबरा @sartatva
Shiv Stuti is a poem composed in praise of Lord Shiva, one of the main deities in Hinduism. Shiv Stuti is believed to have been written by Adi Shankaracharya, a great philosopher and saint of the 8th century CE. Shiv Stuti describes the attributes, qualities and deeds of Shiva, and expresses the devotion and admiration of the poet for him. Shiv Stuti is recited by Hindus as a way of worshipping Shiva and seeking his blessings.
आशुतोष शशाँक शेखर, चन्द्र मौली चिदंबरा,
कोटि कोटि प्रणाम शम्भू, कोटि नमन दिगम्बरा ॥
निर्विकार ओमकार अविनाशी, तुम्ही देवाधि देव,
जगत सर्जक प्रलय करता, शिवम सत्यम सुंदरा ॥
निरंकार स्वरूप कालेश्वर, महा योगीश्वरा,
दयानिधि दानिश्वर जय, जटाधार अभयंकरा ॥
शूल पानी त्रिशूल धारी, औगड़ी बाघम्बरी,
जय महेश त्रिलोचनाय, विश्वनाथ विशम्भरा ॥
नाथ नागेश्वर हरो हर, पाप साप अभिशाप तम,
महादेव महान भोले, सदा शिव शिव संकरा ॥
जगत पति अनुरकती भक्ति, सदैव तेरे चरण हो,
क्षमा हो अपराध सब, जय जयति जगदीश्वरा ॥
जनम जीवन जगत का, संताप ताप मिटे सभी,
ओम नमः शिवाय मन, जपता रहे पञ्चाक्षरा ॥
आशुतोष शशाँक शेखर, चन्द्र मौली चिदंबरा,
कोटि कोटि प्रणाम शम्भू, कोटि नमन दिगम्बरा ॥
कोटि नमन दिगम्बरा..
कोटि नमन दिगम्बरा..
कोटि नमन दिगम्बरा..
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shiv puran episode 67 श्री विष्णु जी को शाप #omnamahshivaya
shiv puran episode 67 श्री विष्णु जी को शाप #omnamahshivaya @sartatva
शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड – - अध्याय ३९
श्रीविष्णु और देवताओं से अपराजित दधीचि का उनके लिये शाप और क्षुव पर अनुग्रह
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भक्तवत्सल भगवान् विष्णु राजा क्षुव का हित-साधन करने के लिये ब्राह्मण का रूप धारण कर दधीचि के आश्रम पर गये। वहाँ उन जगदगुरु श्रीहरि ने शिवभक्तशिरोमणि ब्रह्मर्षि दधीचि को प्रणाम करके क्षुव के कार्य की सिद्धि के लिये उद्यत हो उनसे यह बात कही।
श्रीविष्णु बोले – भगवान् शिव की आराधना में तत्पर रहने वाले अविनाशी ब्रह्मर्षि दधीचि! मैं तुमसे एक वर माँगता हूँ। उसे तुम मुझे दे दो।
क्षुव के कार्य की सिद्धि चाहनेवाले देवाधिदेव श्रीहरि के इस प्रकार याचना करने पर शैवशिरोमणि दधीचि ने शीघ्र ही भगवान् विष्णु से इस प्रकार कहा –
दधीचि बोले – ब्रह्मन्! आप क्या चाहते हैं, यह मुझे ज्ञात हो गया। आप क्षुव का काम बनाने के लिये साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही ब्राह्मण का रूप धारण करके यहाँ आये हैं। इसमें संदेह नहीं कि आप पुरे मायावी हैं। किंतु देवेश! जनार्दन! मुझे भगवान् रुद्र की कृपा से भूत, भविष्य और वर्तमान – तीनों कालों का ज्ञान सदा ही बना रहता है। सुव्रत! मैं आपको जानता हूँ। आप पापहारी श्रीहरि एवं विष्णु हैं। यह ब्राह्मण का वेश छोड़िये। दुष्ट बुद्धिवाले राजा क्षुव ने आपकी आराधना की है। (इसीलिये आप पधारे हैं) भगवन्! हरे! आपकी भक्तवत्सलता को भी मैं जानता हाँ। यह छल छोड़िये। अपने रूप को ग्रहण कीजिये और भगवान् शंकर के स्मरण में मन लगाइये। मैं भगवान् शंकर की आराधना में लगा रहता हूँ। ऐसी दशा में भी यदि मुझसे किसी को भय हो तो आप उसे यत्नपूर्वक सत्य की शपथ के साथ कहिये। मेरा मन शिव के स्मरण में ही लगा रहता है। मैं कभी झूठ नहीं बोलता। इस संसार में किसी देवता या दैत्य से भी मझे भय नहीं होता।
श्रीविष्णु बोले – उत्तम व्रत का पालन करने वाले दधीचि! तुम्हारा भय सर्वथा नष्ट ही है; क्योंकि तुम शिव की आराधना में तत्पर रहते हो। इसलिये सर्वज्ञ हो। परंतु मेरे कहने से तुम एक बार अपने प्रतिद्वन्द्वी राजा क्षुव से जाकर कह दो कि 'राजेन्द्र! मैं तुमसे डरता हूँ।
भगवान् विष्णु का यह वचन सुनकर भी शैवशिरोमणि महामुनि दधीचि निर्भय ही रहे और हँसकर बोले।
दधीचि ने कहा – मैं देवाधिदेव पिनाकपाणि भगवान् शम्भु के प्रसाद से कहीं, कभी किसी से और किंचिन्मात्र भी नहीं डरता – सदा ही निर्भय रहता हूँ।
इसपर श्रीहरि ने मुनि को दबाने की चेष्टा की। देवताओं ने भी उनका साथ दिया; किंतु सबके सभी अस्त्र कुण्ठित हो गये। तदनन्तर भगवान् श्रीविष्णु ने अगणित गणों की सृष्टि की। परंतु महर्षि ने उनको भी भस्म कर दिया। तब भगवान् ने अपनी अनन्त विष्णुमूर्ति प्रकट की। यह सब देखकर च्यवनकुमार ने वहाँ जगदीश्वर भगवान् विष्णु से कहा –
दधीचि बोले – महाबाहो! माया को त्याग दीजिये। विचार करने से यह प्रतिभास मात्र प्रतीत होती है। माधव! मैंने सहस्त्रों दुर्विज्ञेय वस्तुओं को जान लिया है। आप मुझमें अपने सहित सम्पूर्ण जगत् को देखिये। निरालस्य होकर मुझमें ब्रह्मा एवं रुद्र का भी दर्शन कीजिये। मैं आपको दिव्य दृष्टि देता हूँ।
ऐसा कहकर भगवान् शिव के तेज से पूर्ण शरीरवाले च्यवनकुमार दधीचि मुनि ने अपनी देह में समस्त ब्रह्माण्ड का दर्शन कराया। तब भगवान् विष्णु ने उनपर पुनः कोप करना चाहा। इतने में ही मेरे साथ राजा क्षुव वहाँ आ पहुँचे। मैंने निश्चेष्ट खड़े हुए भगवान् पद्मनाभ को तथा देवताओं को क्रोध करने से रोका। मेरी बात सुनकर इन लोगों ने ब्राह्मण दधीचि को परास्त नहीं किया। श्रीहरि उनके पास गये और उन्होंने मुनि को प्रणाम किया। तदनन्तर क्षुव अत्यन्त दीन हो उन मुनीश्वर दधीचि के निकट गये और उन्हें प्रणाम करके प्रार्थना करने लगे।
क्षुव बोले – मुनिश्रेष्ठ! शिवभक्त शिरोमणे! मुझ पर प्रसन्न होइये। परमेश्वर! आप दुर्जनों की दृष्टि से दूर रहने वाले हैं। मुझ पर कृपा कीजिये।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! राजा क्षुव की यह बात सुनकर तपस्या की निधि ब्राह्मण दधीचि ने उन पर अनुग्रह किया। तत्पश्चात् श्रीविष्णु आदि को देखकर वे मुनि क्रोध से व्याकुल हो गये और मन-ही-मन शिव का स्मरण करके विष्णु तथा देवताओं को शाप देने लगे।
दधीचि ने कहा – देवराज इन्द्र सहित देवताओं और मुनीश्वरो! तुम लोग रुद्र की क्रोधाग्नि से श्रीविष्णु तथा अपने गणों सहित पराजित और ध्वस्त हो जाओ।
देवताओं को इस तरह शाप दे क्षुव की ओर देखकर देवताओं और राजाओं के पूजनीय द्विजश्रेष्ठ दधीचि ने कहा – 'राजेन्द्र! ब्राह्मण ही बली और प्रभावशाली होते हैं।' ऐसा स्पष्ट रूप से कहकर ब्राह्मण दधीचि अपने आश्रम में प्रविष्ट हो गये। फिर दधीचि को नमस्कार मात्र करके क्षुव अपने घर चले गये।
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वरलक्ष्मी व्रत से दूर होती है पैसों की तंगी @sartatva
वरलक्ष्मी व्रत से दूर होती है पैसों की तंगी @sartatva
वलक्ष्मी व्रत से दरिद्रता की छाया भी दूर हो जाती है. इस व्रत की कथा मात्र सुनने से मां लक्ष्मी का आशीर्वाद मिलता है। इस बार वरलक्ष्मी व्रत 25 अगस्त को है।
इस दिन महिलाएं पति की लंबी आयु, संतान की तरक्की, धन, सौंदर्य, ऐश्वर्य और कीर्ति पाने के लिए व्रत करती हैं। ये व्रत सावन महीने के आखिरी शुक्रवार के दिन रखा जाता है। इस दिन मां लक्ष्मी के वरलक्ष्मी रूप की पूजा का विधान है।
वलक्ष्मी व्रत के प्रभाव से व्यक्ति के जीवन से दरिद्रता की छाया भी दूर हो जाती है और उसकी कई पीढ़ियां भी लंबे समय तक सुखी जीवन बिताती हैं। इस व्रत की कथा मात्र सुनने से मां लक्ष्मी का आशीर्वाद मिलता है। वरलक्ष्मी व्रत की दक्षिण भारत में विशेष मान्यता है।
वरलक्ष्मी व्रत की कथा सुनने और पूजा मुहूर्त का समय जानने के लिए हमारे यूट्यूब चैनल सारतत्व को सब्सक्राइब करें और पूरा वीडियो देखें।
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Varalakshmi vratham 2023 दूर होती है पैसों की तंगी @sartatva
Varalakshmi vratham 2023 दूर होती है पैसों की तंगी @sartatva
वलक्ष्मी व्रत से दरिद्रता की छाया भी दूर हो जाती है. इस व्रत की कथा मात्र सुनने से मां लक्ष्मी का आशीर्वाद मिलता है। इस बार वरलक्ष्मी व्रत 25 अगस्त को है।
इस दिन महिलाएं पति की लंबी आयु, संतान की तरक्की, धन, सौंदर्य, ऐश्वर्य और कीर्ति पाने के लिए व्रत करती हैं। ये व्रत सावन महीने के आखिरी शुक्रवार के दिन रखा जाता है। इस दिन मां लक्ष्मी के वरलक्ष्मी रूप की पूजा का विधान है।
वलक्ष्मी व्रत के प्रभाव से व्यक्ति के जीवन से दरिद्रता की छाया भी दूर हो जाती है और उसकी कई पीढ़ियां भी लंबे समय तक सुखी जीवन बिताती हैं। इस व्रत की कथा मात्र सुनने से मां लक्ष्मी का आशीर्वाद मिलता है। वरलक्ष्मी व्रत की दक्षिण भारत में विशेष मान्यता है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार स्वंय भगवान शिव ने माता पार्वती को वरलक्ष्मी व्रत की कथा सुनाई थी। कथा के मुताबिक मगध देश में कुंडी नाम का नगर था। जहां चारुमति नाम की महिला रहती थी, जो मां लक्ष्मी की परम भक्त थी। चारुमति हर शुक्रवार को मां लक्ष्मी के निमित्त व्रत कर विधि विधान से पूजन करती थी। एक बार मां लक्ष्मी, चारुमति के सपने में आयीं और उन्होंने उससे सावन के आखिरी शुक्रवार को वरलक्ष्मी व्रत करने के लिए कहा।
चारुमति ने मां लक्ष्मी का आदेश मानकर पूरे विधि पूर्वक व्रत किया। जब चारुमति की पूजा संपन्न हुई तो मां वरलक्ष्मी के आशीर्वाद से उसकी किस्मत पलट गई। चारुमति का घर अन्न धन से भर गया। उसका शरीर सोने-चांदी के गहनों से सज गया। उसके बाद नगर की सभी महिलाओं ने भी इस व्रत को किया, जिसके फलस्वरूप पूरा नगर धन, संपत्ति,अनाज से परिपूर्ण हो गया। मां लक्ष्मी की कृपा से यहां रहने वालों को कभी धन की कमी नहीं हुई। धीरे-धीरे इस व्रत का चलन दक्षिण भारत में बढ़ गया और इसे धन-धान्य प्रदान करने वाला व्रत माना जाने लगा।
वरलक्ष्मी व्रत 2023 मुहूर्त (Varalakshmi Vrat 2023 Muhurat)
सिंह लग्न पूजा मुहूर्त (प्रातः) - सुबह 05:55 - सुबह 07:42
वृश्चिक लग्न पूजा मुहूर्त (अपराह्न) - दोपहर 12:17 - दोपहर 02:36
कुम्भ लग्न पूजा मुहूर्त (सन्ध्या) - शाम 06:22 - रात 07:50
वृषभ लग्न पूजा मुहूर्त (मध्यरात्रि) - रात 10:50 - प्रात: 12:45, अगस्त 26
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Santan gopal stotra with lyrics संतान गोपाल मंत्र #lordshiva
santan gopal stotra with lyrics संतान गोपाल मंत्र @sartatva
Santan Gopal Mantra is a powerful mantra that is believed to help childless couples conceive a healthy child. It is dedicated to Lord Krishna, who is also known as Santan Gopal, the protector of children. The mantra invokes the blessings of Lord Krishna and his consort Devaki, who gave birth to him despite many obstacles. The mantra also expresses the devotion and surrender of the aspirant to Lord Krishna.
The mantra is as follows:
।। ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते देहि में तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।।
Om Shreeng Hreeng Kleeng Glaung Devakisut Govind Vasudev Jagatpate Dehi Me Tanayam Krishn Tvaamaham Sharanam Gatah
The meaning of the mantra is:
Om, I bow to the son of Devaki, Govind, Vasudev, the lord of the universe. Give me a child, O Krishna, I have taken refuge in you.
The benefits of chanting this mantra are:
• It removes all hindrances related to the birth of a healthy child.
• It creates positive vibrations in the womb of the expectant mother and protects her and the child from any harm.
• It bestows mental peace and happiness to the couple and grants them a progeny.
• It enhances the intelligence and health of the child.
The method of chanting this mantra is:
• The mantra should be chanted with a pure heart and sincere intention.
• The mantra should be chanted 108 times daily for a period of 96 days.
• The mantra should be chanted in the morning after taking a bath and in front of an idol or picture of Lord Krishna.
• The mantra should be chanted with a rosary made of tulsi beads.
• The mantra should be accompanied by offering white or yellow flowers, incense, ghee lamp, and sweets to Lord Krishna.
May Lord Krishna bless you with a beautiful child.
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Rudraksha रुद्राक्ष असली हैं कैसे पेहचाने @sartatva
Rudraksha रुद्राक्ष असली हैं कैसे पेहचाने @sartatva
How to identify the original Rudraksha?
Fake Rudraksha is coloured. When fake Rudraksha is kept immersed in mustard oil for some time, it starts losing its colour. It has no effect on the original Rudraksha.
When a real Rudraksha is immersed in water, it sinks, while a fake Rudraksha floats on water.
To identify the real Rudraksha, you have to scratch it with a sharp object, if that Rudraksha is real then fibres will start coming out of it. If the fibres do not come out from the Rudraksha, then understand that the Rudraksha is fake and you have been cheated.
There is a hole in it to insert the Rudraksha into the mala. This hole of Rudraksha is natural, this hole is man-made in fake Rudraksha. If you look carefully, you will know whether this hole is natural or made.
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Watch Shiv Puran every Sunday at 9 PM.
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कैसे करें असली रुद्राक्ष की पहचान ?
नकली रुद्राक्ष पर, रंग किया जाता है नकली रुद्राक्ष को कुछ देर सरसों के तेल में डूबोकर रखने पर, वह रंग छोड़ने लगता है। असली रुद्राक्ष पर इसका कोई असर नहीं होता। क्या आपका रुद्राक्ष असली है, आज हीं चेक करे।
असली रुद्राक्ष को पानी में डूबोने पर वह डूब जाता है, जबकि नकली रुद्राक्ष पानी पर तैरता रहता है।
असली रुद्राक्ष की पहचान करने के लिए आपको उसे किसी नुकीली चीज से कुरेदें , अगर वह रुद्राक्ष असली है तो उसमें से रेशे निकलने लगेंगे। रुद्राक्ष से रेशे न निकले तो समझ लें कि रुद्राक्ष नकली है और आप ठगे गये हैं।
रुद्राक्ष को माला में डालने के लिए इसमें एक छेद होता है। रुद्राक्ष का यह छेद प्राकृतिक होता है, नकली रुद्राक्ष में यह छेद बनाया जाता है। आपको ध्यान से देखने पर पता लग जाएगा कि यह छेद प्राकृतिक है या बनाया गया है।
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देखें शिव पुराण हर रविवार रात ९ बजे।
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Shiv Mahapuran Episode 66 महामृत्युंजय मंत्र Shiv @sartatva
Shiv Mahapuran Episode 66 महामृत्युंजय मंत्र Shiv @sartatva
The Maha Mrityunjaya mantra is a powerful and ancient Sanskrit chant that is addressed to Lord Shiva, the supreme deity of Hinduism. It is believed to have the ability to protect and heal the physical, mental, and spiritual aspects of life. It is also known as the "Great Death-conquering mantra" or the "Moksha mantra" as it can liberate one from the cycle of birth and death. It can ward off evil and negative energies, creating a protective shield around the one who recites it regularly, strengthen the immune system, boost energy levels, speed up the healing process of injuries and illnesses, prevent premature death, bestow immortality, long life to the devotee, remove any kind of dosha, Maas, Gochara, or Antar-Dasha in one's horoscope, bring prosperity and happiness to life, help in making the right decision when faced with a perplexing or challenging situation, calm the mind, reduce stress, enhance concentration, connect one to their own inner divinity and wisdom.
To chant this mantra, one should sit facing the east direction, pray to Lord Shiva, and repeat the following verse 108 times:
Om Tryambakam Yajamahe
Sugandhim Pushtivardhanam
Urvarukamiva Bandhanan
Mrityor Mukshiya Maamritat
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय ३८
श्रीविष्णु की पराजय में दधीचि मुनि के शाप को कारण बताते हुए दधीचि और क्षुव के विवाद का इतिहास, मृत्युंजय-मन्त्र के अनुष्ठान से दधीचि की अवध्यता तथा श्रीहरिका क्षुव को दधीचि की पराजय के लिये यत्न करने का आश्वासन
सूतजी कहते हैं – महर्षियो! अमित बुद्धिमान् ब्रह्मजी की कही हुई यह कथा सुनकर द्विजश्रेष्ठ नारद विस्मय में पड़ गये। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक प्रश्न किया।
नारदजी ने पूछा – पिताजी! भगवान् विष्णु शिवजी को छोड़कर अन्य देवताओं के साथ दक्ष के यज्ञ में क्यों चले गये, जिसके कारण वहाँ उनका तिरस्कार हुआ? क्या वे प्रलयकारी पराक्रमवाले भगवान् शंकर को नहीं जानते थे? फिर उन्होंने अज्ञानी पुरुष की भाँति रुद्रगणों के साथ युद्ध क्यों किया? करुणानिधे! मेरे मन में यह बहुत बड़ा संदेह है। आप कृपा करके मेरे इस संशय को नष्ट कर दीजिये और प्रभो! मन में उत्साह पैदा करनेवाले शिवचरित को कहिये।
ब्रह्मीजी ने कहा – नारद! पूर्वकाल में राजा क्षुव की सहायता करनेवाले श्रीहरि को दधीचि मुनि ने शाप दे दिया था, जिससे उस समय वे इस बात को भूल गये और वे दूसरे देवताओं को साथ ले दक्ष के यज्ञ में चले गये। दधीचि ने क्यों शाप दिया, यह सुनो। प्राचीनकाल में क्षुव नाम से प्रसिद्ध एक महातेजस्वी राजा हो गये हैं। वे महाप्रभावशाली मुनीश्वर दधीचि के मित्र थे। दीर्घकाल की तपस्या के प्रसंग से क्षुव और दधीचि में विवाद आरम्भ हो गया, जो तीनों लोकों में महान् अनर्थकारी के रूप में विख्यात हुआ। उस विवाद में वेद के विद्वान् शिवभक्त दधीचि कहते थे कि शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय – इन तीनों वर्णो से ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है, इसमें संशय नहीं है। महामुनि दधीचि की वह बात सुनकर धन-वैभव के मद से मोहित हुए राजा क्षुव ने उसका इस प्रकार प्रतिवाद किया।
क्षुव बोले – राजा इन्द्र आदि आठ लोकपालों के स्वरूप को धारण करता है। वह समस्त वर्णों और आश्रमों का पालक एवं प्रभु है। इसलिये राजा ही सबसे श्रेष्ठ है। राजा की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करने वाली श्रुति भी कहती है कि राजा सर्वदेवमय है। मुने! इस श्रुति के कथनानुसार जो सबसे बड़ा देवता है, वह में ही हूँ। इस विवेचन से ब्राह्मण की अपेक्षा राजा ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है। च्यवननन्दन! आप इस विषय में विचार करें और मेरा अनादर न करें; क्योंकि मैं सर्वथा आपके लिये पूजनीय हूँ।
राजा क्षुव का यह मत श्रुतियों और विष्णु और स्मृतियों के विरुद्ध था। इसे सुनकर भृगुकुलभूषण मुनिश्रेष्ठ दधीचि को बड़ा क्रोध हुआ। मुने! अपने गौरव का विचार करके कुषित हुए महातेजस्वी दधीचि ने क्षुव के मस्तक पर बायें मुक्के से प्रहार किया। उनके मुक्के की मार खाकर ब्रह्माण्ड के अधिपति कुत्सित बुद्धिवाले क्षुव अत्यन्त कुपित हो गरज उठे और उन्होंने वज्र से दधीचि को काट डाला। उस वज्र से आहत हो भृगुवंशी दधीचि पृथ्वी पर गिर पड़े। भार्गवबंशधर दधीचि ने गिरते समय शुक्राचार्य का स्मरण किया। योगी शुक्राचार्य ने आकर दधीचि के शरीर को, जिसे क्षुव ने काट डाला था, तुरंत जोड़ दिया। दधीचि के अंगों को पूर्ववत् जोड़कर शिवभक्त शिरोमणि तथा मृत्युंजय-विद्या के प्रवर्तक शुक्राचार्य ने उनसे कहा।
शुक्र बोले – तात दधीचि! मैं सर्वेश्वर भगवान् शिव का पूजन करके तुम्हें श्रुतिप्रतिपादित महामृत्युंजय नामक श्रेष्ठ मन्त्र का उपदेश देता हूँ।
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Shiv Mahapuran Episode 62 वीरभद्र और महाकाली full shiv puran हिंदी में शिव पुराण @sartatva
Shiv Mahapuran Episode 62 वीरभद्र और महाकाली full shiv puran हिंदी में शिव पुराण @sartatva
शिवपुराण रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय ३२
वीरभद्र और महाकाली हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण देवी-देवता हैं, और वे विशेष अवसरों पर या विशेष कार्यों के लिए प्रकट होते हैं।
वीरभद्र भगवान शिव (महादेव) के भयानक रूप रूप में जाने जाते हैं। उनकी प्रकटि भगवान शिव के अधीन उनके शूल और त्रिशूल धारी अवतार के रूप में होती है। वीरभद्र को साधारणतः देवी दुर्गा की क्रोधभद्र या रुद्र भद्र के रूप में भी जाना जाता है। वे दुर्गा देवी के द्वादश अवतारों में से एक माने जाते हैं। वीरभद्र की प्रकटि नवरात्रि के दौरान होती है, जब मां दुर्गा असुर रक्षसों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रकट हुई थीं। वीरभद्र उन्हें सहायता प्रदान करने के लिए उनके साथ उपस्थित होते हैं और शक्ति के अपार स्रोत भगवान शिव से प्राप्त करते हैं।
महाकाली मां दुर्गा की एक अवतारिण हैं और भगवान शिव की सहस्त्रभुजा रूपिणी हैं। महाकाली भगवान शिव की भयानक शक्ति के रूप में जानी जाती हैं, जो अधर्म को नष्ट करने और सत्य को स्थापित करने की शक्ति है। उनके प्रत्यक्ष दर्शन भक्तों के लिए सांत्वना देने, शक्ति और साहस प्रदान करने, और दुर्भावनाओं और अनाधिकृत कार्यों का नाश करने के लिए होते हैं। उनकी प्रकटि भगवान शिव और देवी दुर्गा के साथ मिलकर उन्हें उनके साधकों की सहायता करने के लिए होती है।
इन देवी-देवताओं के प्रकट होने के पीछे विभिन्न कथाएं और पौराणिक कथाएं हैं, जो उनके महत्व और उपास्यता को समझाती हैं। यह भारतीय परंपरा और धरोहर में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और देवी-देवता की शक्ति और प्रेम का प्रतीक हैं।
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गणों के मुख से और नारद से भी सती के दग्ध होने की बात सुनकर दक्ष पर कुपित हुए शिव का अपनी जटा से वीरभद्र और महाकाली को प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करने और विरोधियों को जला डालने की आज्ञा देना
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ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! वह आकाशवाणी सुनकर सब देवता आदि भयभीत तथा विस्मित हो गये। उनके मुख से कोई बात नहीं निकली। वे इस तरह खड़े या बैठे रह गये, मानो उन पर विशेष मोह छा गया हो। भृगुके मन्त्रबल से भाग जाने के कारण जो वीर शिवगण नष्ट होने से बच गये थे, वे भगवान् शिव की शरण में गये। उन सब ने अमित तेजस्वी भगवान् रुद्र को भलीभाँति सादर प्रणाम करके वहाँ यज्ञ में जो कुछ हुआ था, वह सारी घटना उनसे कह सुनायी।
गण बोले – महेश्वर! दक्ष बड़ा दुरात्मा और घमंडी है। उसने वहाँ जाने पर सती देवी का अपमान किया और देवताओं ने भी उनका आदर नहीं किया। अत्यन्त गर्व से भरे हुए उस दुष्ट दक्ष ने आपके लिये यज्ञ में भाग नहीं दिया। दूसरे देवताओं के लिये दिया और आपके विषय में उच्च स्वर से दुर्वचन कहे। प्रभो! यज्ञ में आपका भाग न देखकर सती देवी कुपित हो उठीं और पिता की बारंबार निन्दा करके उन्होंने तत्काल अपने शरीर को योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। यह देख दस हजार से अधिक पार्षद लज्जावश शस्त्रों द्वारा अपने ही अंगों को काट-काट कर वहाँ मर गये। शेष हम लोग दक्ष पर कुपित हो उठे और सबको भय पहुँचाते हुए वेगपूर्वक उस यज्ञ का विध्वंस करने को उद्यत हो गये; परंतु विरोधी भृगु ने अपने प्रभाव से हमें तिरस्कृत कर दिया। हम उनके मन्त्रबल का सामना न कर सके। प्रभो! विश्वम्भर! वे ही हम लोग आज आपकी शरण में आये हैं। दयालो! वहाँ प्राप्त हुए भय से आप हमें बचाइये, निर्भय कीजिये। महाप्रभो! उस यज्ञ में दक्ष आदि सभी दुष्टों ने घमंड में आकर आपका विशेष रूप से अपमान किया है। कल्याणकारी शिव! इस प्रकार हमने अपना, सती देवी का और मूढ़ बुद्धिवाले दक्ष आदि का भी सारा वृत्तान्त कह सुनाया। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा करें।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! अपने पार्षदों की यह बात सुनकर भगवान् शिव ने वहाँ की सारी घटना जानने के लिये शीघ्र ही तुम्हारा स्मरण किया। देवर्षे! तुम दिव्य दृष्टि से सम्पन्न हो। अतः भगवान् के स्मरण करने पर तुम तुरंत वहाँ आ पहुँचे और शंकरजी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके खड़े हो गये। स्वामी शिव ने तुम्हारी प्रशंसा करके तुमसे दक्षयज्ञ में गयी हुई सती का समाचार तथा दूसरी घटनाओं को पूछा। तात! शम्भु के पूछने पर शिव में मन लगाये रखने वाले तुमने शीघ्र ही वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया, जो दक्षयज्ञ में घटित हुआ था। मुने! तुम्हारे मुख से निकली हुई बात सुनकर उस समय महान् रौद्र पराक्रम से सम्पन्न सर्वेश्वर रुद्र ने तुरंत ही बड़ा भारी क्रोध प्रकट किया। लोक संहारकारी रुद्र ने अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक उस पर्वत के ऊपर दे मारा। मुने! भगवान् शंकर के पटकने से उस जटा के दो टुकड़े हो गये और महाप्रलय के समान भयंकर शब्द प्रकट हुआ। देवर्ष! उस जटा के पूर्व भाग से महाभयंकर महाबली वीरभद्र प्रकट हुए, जो समस्त शिवगणों के अगुआ हैं। वे भूमण्डल को सब ओर से व्याप्त करके उससे भी दस अंगुल अधिक होकर खड़े हुए।
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Shiv Mahapuran Episode 61 शिव महापुराण sawan somvar 2023 @sartatva
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शिवपुराण रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय ३१
आकाशवाणी द्वारा दक्ष की भर्त्सना, उनके विनाश की सूचना तथा समस्त देवताओं को यज्ञमण्डप से निकल जाने की प्रेरणा
ब्रह्माजी कहते हैं – मुनीश्वर! इसी बीच में वहाँ दक्ष तथा देवता आदि के सुनते हुए आकाशवाणी ने यह यथार्थ बात कही – "रे-रे दुराचारी दक्ष! ओ दम्भाचारपरायण महामूढ़! यह तूने कैसा अनर्थकारी कर्म कर डाला? ओ मूर्ख! शिवभक्तराज दधीचि के कथन को भी तूने प्रामाणिक नहीं माना, जो तेरे लिये सब प्रकार से आनन्ददायक और मंगलकारी था। वे ब्राह्मण देवता तुझे दुस्सह शाप देकर तेरी यज्ञशाला से निकल गये तो भी तुझ मूढ़ ने अपने मन में कुछ भी नहीं समझा। उसके बाद तेरे घर में मंगलमयी सती देवी स्वतः पधारीं, जो तेरी अपनी ही पुत्री थीं; किंतु तूने उनका भी परम आदर नहीं किया! ऐसा क्यों हुआ? ज्ञानदुर्बल दक्ष! तूने सती और महादेवजी की पूजा नहीं की, यह क्या किया? 'मैं ब्रह्माजी का बेटा हूँ' ऐसा समझकर तू व्यर्थ ही घमंड में भरा रहता है और इसीलिये तुझ पर मोह छा गया है। वे सती देवी ही सत्पुरुषों की आराध्या देवी हैं अथवा सदा आराधना करने के योग्य हैं, वे समस्त पुण्यों का फल देने वाली, तीनों लोकों की माता, कल्याणस्वरूपा और भगवान् शंकर के आधे अंग में निवास करने वाली हैं। वे सती देवी ही पूजित होने पर सदा सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करने वाली हैं। वे ही महेश्वर की शक्ति हैं और अपने भक्तों को सब प्रकार के मंगल देती हैं। वे सती देवी ही पूजित होने पर सदा संसार का भय दूर करती हैं, मनोवांछित फल देती हैं तथा वे ही समस्त उपद्रवों को नष्ट करने वाली देवी हैं। वे सती ही सदा पूजित होने पर कीर्ति और सम्पत्ति प्रदान करती हैं। वे ही पराशक्ति तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली परमेश्वरी हैं। वे सती ही जगत् को जन्म देने वाली माता, जगत् की रक्षा करने वाली अनादि शक्ति और प्रलयकाल में जगत् का संहार करने वाली हैं। वे जगन्माता सती ही भगवान् विष्णु की माता रूप से सुशोभित होने वाली तथा ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, अग्नि एवं सूर्यदेव आदि की जननी मानी गयी हैं। वे सती ही तप, धर्म और दान आदि का फल देने वाली हैं। वे ही शम्भुशक्ति महादेवी हैं तथा दुष्टों का हनन करने वाली परात्पर शक्ति हैं। ऐसी महिमावाली सती देवी जिनकी सदा प्रिय धर्मपत्नी हैं, उन भगवान् महादेव को तूने यज्ञ में भाग नहीं दिया! अरे! तू कैसा मूढ़ और कुविचारी है।
"भगवान् शिव ही सबके स्वामी तथा परात्पर परमेश्वर हैं। वे समस्त देवताओं के सम्यक् सेव्य हैं और सबका कल्याण करनेवाले हैं। इन्हीं के दर्शन की इच्छा से सिद्ध पुरुष तपस्या करते हैं और इन्हीं के साक्षात्कार की अभिलाषा मन में लेकर योगी लोग योग-साधना में प्रवृत्त होते हैं। अनन्त धन-धान्य और यज्ञ-याग आदि का सबसे महान् फल यही बताया गया है कि भगवान् शंकर का दर्शन सुलभ हो। शिव ही जगत् का धारण-पोषण करनेवाले हैं। वे ही समस्त विद्याओं के पति एवं सब कुछ करने में समर्थ हैं। आदिविद्या के श्रेष्ठ स्वामी और समस्त मंगलों के भी मंगल वे ही हैं। दुष्ट दक्ष! तूने उनकी शक्ति का आज सत्कार नहीं किया है। इसीलिये इस यज्ञ का विनाश हो जायगा। पूजनीय व्यक्तियों की पूजा न करने से अमंगल होता ही है। तुने परम पूज्य शिवस्वरूपा सती का पूजन नहीं किया है। शेषनाग अपने सहस्त्र मस्तकों से प्रतिदिन प्रसन्नतापूर्वक जिनके चरणों की रज धारण करते हैं, उन्हीं भगवान् शिव की शक्ति सती देवी थीं। जिनके चरण कमलों का निरन्तर ध्यान और सादर पूजन करके ब्रह्माजी ब्रह्मत्व को प्राप्त हुए हैं, उन्हीं भगवान् शिव की प्रिय पत्नी सती देवी थीं। जिनके चरण कमलों का निरन्तर ध्यान और सादर पूजन करके इन्द्र आदि लोकपाल अपने-अपने उत्तम पद को प्राप्त हुए हैं, वे भगवान् शिव सम्पूर्ण जगत् के पिता हैं और शक्तिस्वरूपा सती देवी जगत् की माता कही गयी हैं। मूढ़ दक्ष! तूने उन माता-पिता का सत्कार नहीं किया, फिर तेरा कल्याण कैसे होगा।
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dhan samridhi ke upay शुक्रवार के उपाय jyotish ke saral upay @sartatva
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धन संबंधी समस्याओं से परेशान तो आज शुक्रवार को करें ये काम, भर जाएंगे धन के भंडार
मां लक्ष्मी का लाल और सफेद रंग अति प्रिय है. शुक्रवार के दिन लाल या सफेद रंग के कपड़े पहन कर ही उनकी पूजा करनी चाहिए. इससे मां लक्ष्मी जल्द कृपा बरसती है. मां लक्ष्मी का पूजन करते समय हाथ में चांदी की अंगूठी या छल्ला पहनना शुभ माना जाता है. माना जाता है कि सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.
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संतान गोपाल मंत्र santan gopal mantra in hindi पुत्र प्राप्ति मंत्र @sartatva
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श्रीशं कमलपत्राक्षं देवकीनन्दनं हरिम्। सुतसम्प्राप्तये कृष्णं नमामि मधुसूदनम्
मैं पुत्र की प्राप्ति के लिये लक्ष्मी पति, कमलनयन, देवकी नन्दन तथा सर्वपापहारी, मधुसूदन, श्री कृष्ण को नमस्कार करता हूँ|
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Thursday upay for money गुरुवार के टोटके guruwar ke upay totke @sartatva
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अगर घर में दरिद्रता का नाश करना हो तो बृहस्पतिवार के दिन घर के सदस्य खासतौर पर महिलाएं बाल न धोएं, साथ ही नाखून भी न काटें।
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Shiv puran episode 60 माता सती के साथ कितने पार्षदों ने प्राण त्याग किया? om namah shivaya@sartatva
Shiv puran episode 60 माता सती के साथ कितने पार्षदों ने प्राण त्याग किया? om namah shivaya@sartatva
शिवपुराण रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय ३०
सती का योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर देना, दर्शकों का हाहाकार शिवपार्षदों का प्राणत्याग तथा दक्ष पर आक्रमण, ऋभुओं द्वारा उनका भगाया जाना तथा देवताओं की चिन्ता
शिवपुराण में रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड का वर्णन करते हैं जिसमें बात की गई है सती के योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म करने, दर्शकों के हाहाकार का उत्पन्न होना, शिवपार्षदों की प्राणत्याग का वर्णन और दक्ष पर उसका आक्रमण। इसके अलावा ऋभुओं द्वारा उनका भगाना और देवताओं की चिंता भी वर्णित हैं।
इस खंड में सती, भगवान शिव की पत्नी, ध्यान और तप से उनकी स्तुति करती हैं। उनकी अत्यंत भक्ति और समर्पण के कारण, उन्हें ब्रह्मा द्वारा योगाग्नि दी जाती है, जो उन्हें शरीर के भस्म करने की क्षमता प्रदान करती है। सती उस योगाग्नि में सम्मिलित हो जाती हैं और अपने शरीर को जलाकर भस्म कर देती हैं।
इसके पश्चात्, जब उनका भस्म शेष देखा जाता है, दर्शकों में विस्मय और हाहाकार उत्पन्न होता है। उनके भस्मीकरण के दृश्य को देखकर सभी विस्मित हो जाते हैं और उनकी महिमा को स्वीकार करते हैं।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! मौन हुई सती देवी अपने पति का सादर स्मरण करके शांतचित्त हो सहसा उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयीं। उन्होंने विधिपूर्वक जल का आचमन करके वस्त्र ओढ़ लिया और पवित्र भाव से आँखें मूँदकर पति का चिन्तन करती हुई वे योग मार्ग में स्थित हो गयीं। उन्होंने आसन को स्थिर कर प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान को एक रूप करके नाभिचक्र में स्थित किया। फिर उदान वायु को बलपूर्वक नाभिचक्र से ऊपर उठाकर बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया। तत्पश्च्यात शंकर की प्राणवल्लभा अनिन्दिता सती उस हृदय स्थित वायु को कण्ठमार्ग से भ्रुकुटियों के बीच में ले गयीं। इस प्रकार दक्ष पर कुपित हो सहसा अपने शरीर को त्यागने की इच्छा से सती ने अपने सम्पूर्ण अंगों में योगमार्ग के अनुसार वायु और अग्नि की धारणा की। तदनन्तर अपने पति के चरणारविन्दों का चिन्तन करती हुई सती ने अन्य सब वस्तुओं का ध्यान भुला दिया। उनका चित्त योगमार्ग में स्थित हो गया था। इसलिये वहाँ उन्हें पति के चरणों के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखायी दिया। मुनिश्रेष्ठ! सती का निष्पाप शरीर तत्काल गिरा और उनकी इच्छा के अनुसार योगाग्नि से जलकर उसी क्षण भस्म हो गया। उस समय वहाँ आये हुए देवता आदि ने जब यह घटना देखी, तब वे बड़े जोर से हाहाकार करने लगे। उनका वह महान्, अद्भुत, विचित्र एवं भयंकर हाहाकार आकाश में और पृथ्वीतल पर सब ओर फैल गया। लोग कह रहे थे – 'हाय! महान् देवता भगवान् शंकर की परम प्रेयसी सती देवी ने किस दुष्ट के दुर्व्यवहार से कुपित हो अपने प्राण त्याग दिये। अहो! ब्रह्माजी के पुत्र इस दक्ष की बड़ी भारी दुष्टता तो देखो। सारा चराचर जगत् जिसकी संतान है, उसी की पुत्री मनस्विनी सती देवी, जो सदा ही मान पाने के योग्य थीं, उसके द्वारा ऐसी निरादिृत हुईं कि प्राणों से ही हाथ धो बैठीं। भगवान् वृषभध्वज की प्रिया सती सदा सभी सत्पुरुषों के द्वारा निरन्तर सम्मान पाने की अधिकारिणी थीं। वास्तव में उसका हृदय बड़ा ही असहिष्णु है। वह प्रजापति दक्ष ब्राह्मणद्रोही है। इसलिये सारे संसार में उसे महान् अपयश प्राप्त होगा। उसकी अपनी ही पुत्री उसी के अपराध से जब प्राण त्याग करने को उद्यत ही गयी, तब भी उस महानरकभोगी शंकर द्रोही ने उसे रोका तक नहीं!
जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिवजी के पार्षद सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख तुरंत ही क्रोधपूर्वक अस्त्र-शस्त्र ले दक्ष को मारने के लिये उठ खड़े हुए। यज्ञ मण्डप के द्वार पर खड़े हुए वे भगवान् शंकर के समस्त साथ हजार पार्षद, जो बड़े भारी बलवान् थे, अत्यन्त रोष से भर गये और 'हमें धिक्कार है, धिक्कार है', ऐसा कहते हुए भगवान् शंकर के गणों के वे सभी वीर यूथपति बारंबार उच्च स्वर से हाहाकार करने लगे। देवर्षे! कितने ही पार्षद तो वहाँ शोक से ऐसे व्याकुल हो गये कि वे अत्यन्त तीखे प्राणनाशक शस्त्रों द्वारा अपने ही मस्तक और मुख आदि अंगों पर आघात करने लगे। इस प्रकार बीस हजार पार्षद उस समय दक्षकन्या सती के साथ ही नष्ट हो गये। यह एक अद्भुत-सी बात हुई। नष्ट होने से बचे हुए महात्मा शंकर के वे प्रमथगण क्रोध युक्त दक्ष को मारने के लिये हथियार लिये उठ खड़े हुए। मुने! उन आक्रमणकारी पार्षदों का वेग देखकर भगवान् भृगु ने यज्ञ में विघ्न डालनेवालों का नाश करने के लिये नियत 'अपह्ता असुराः रक्षाँसि वेदिषदः' इस यजुर्मन्त्र से दक्षिणाग्नि से आहुति दी। भृगु के आहुति देते ही यज्ञकुंड से ऋभु नामक सहस्त्रों महान् देवता, जो बड़े प्रबल वीर थे, वहाँ प्रकट हो गये।
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Shiv mahapuran episode 59 माता सती ने यज्ञशाला मैं प्राण-त्याग का निश्चय क्यों किया ? @sartatva
Shiv mahapuran episode 59 माता सती ने यज्ञशाला मैं प्राण-त्याग का निश्चय क्यों किया ? @sartatva
शिवपुराण रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय २९
यज्ञशाला में शिव का भाग न देखकर सती के रोषपूर्ण वचन, दक्ष द्वारा शिव की निन्दा सुन दक्ष तथा देवताओं को धिक्कार-फटकार कर सती द्वारा अपने प्राण-त्याग का निश्चय
माता सती ने यज्ञशाला में प्राण-त्याग का निश्चय इसलिए किया क्योंकि उन्होंने अपने पति, भगवान शिव, की अनुमति के बिना दक्ष के शिवद्रोह का ज्ञान प्राप्त किया था। वे देवी सती के पिता दक्ष राजा द्वारा भगवान शिव की निन्दा और अपमान करने के कारण बहुत दुखी थे। सती ने इस निन्दा को सहन नहीं कर सकी और अपने प्रेम और सम्मान के प्रतीक रूप में पति के साथ एकाग्रता से प्रवेश करने का निर्णय लिया। इस प्रकार, उन्होंने अपनी आत्मा को यज्ञशाला में त्याग दिया और प्राण त्याग किया। यह उनका एक महान बलिदान था जो शिवभक्ति और अपने पति के प्रति उनके अटूट प्रेम का प्रतीक बना।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! दक्षकन्या सती उस स्थान पर गयीं, जहाँ वह महान् प्रकाश से युक्त यज्ञ हो रहा था। वहाँ देवता, असुर और मुनीन्द्र आदि के द्वारा कौतूहलपूर्ण कार्य हो रहे थे। सती ने वहाँ अपने पिता के भवन को नाना प्रकार की आश्चर्यजनक वस्तुओं से सम्पन्न, उत्तम प्रभा से परिपूर्ण, मनोहर तथा देवताओं और ऋषियों के समुदाय से भरा हुआ देखा। देवी सती भवन के द्वार पर जाकर खड़ी हुईं और अपने वाहन नन्दी से उतरकर अकेली ही शीकघ्रतापूर्वक यज्ञशाला के भीतर चली गयीं। सती को आयी देख उनकी यशस्विनी माता असिकनी (वीरिणी)-ने और बहिनों ने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया। परंतु दक्ष ने उन्हें देखकर भी कुछ आदर नहीं किया तथा उन्हीं के भय से शिव की माया से मोहित हुए दूसरे लोग भी उनके प्रति आदर का भाव न दिखा सके। मुने! सब लोगों के द्वारा तिरस्कार प्राप्त होने से सती देवी को बड़ा विस्मय हुआ तो भी उन्होंने अपने माता-पिता के चरणों में मस्तक झुकाया। उस यज्ञ में सती ने विष्णु आदि देवताओं के भाग देखे, परंतु शम्भु का भाग उन्हें कहीं नहीं दिखायी दिया। तब सती ने दुस्सह क्रोध प्रकट किया। वे अपमानित होने पर भी रोष से भरकर सब लोगों की ओर क्रूर दृष्टि से देखती और दक्ष को जलाती हुई-सी बोलीं।
सती ने कहा – प्रजापते! आपने परम मंगलकारी भगवान् शिव को इस यज्ञ में क्यों नहीं बुलाया? जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण चराचर जगत् पवित्र होता है, जो स्वयं ही यज्ञ, यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ, यज्ञ के अंग, यज्ञ की दक्षिणा और यज्ञकर्ता यजमान हैं, उन भगवान् शिव के बिना यज्ञ की सिद्धि कैसे हो सकती है? अहो! जिनके स्मरण करने मात्र से सब कुछ पवित्र हो जाता है, उन्हीं के बिना किया हुआ यह सारा यज्ञ अपवित्र हो जायगा। द्रव्य, मन्त्र आदि, हव्य और कव्य – ये सब जिनके स्वरूप हैं, उन्हीं भगवान् शिव के बिना इस यज्ञ का आरम्भ कैसे किया गया? क्या आपने भगवान् शिव को सामान्य देवता समझ कर उनका अनादर किया है? आज आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। इसलिये आप पिता होकर भी मुझे अधम जँच रहे हैं। अरे! ये विष्णु और ब्रह्मा आदि देवता तथा मुनि अपने प्रभु भगवान् शिव के आये बिना इस यज्ञ में कैसे चले आये?
ऐसा कहने के बाद शिवस्वरूपा परमेश्वरी सती ने भगवान् विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र आदि सब देवताओं को तथा समस्त ऋषियों को बडे कड़े शब्दों में फटकारा।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार क्रोध से भरी हुई जगदम्बा सती ने वहाँ व्यथित हृदय से अनेक प्रकार की बातें कहीं। श्रीविष्णु आदि समस्त देवता और मुनि जो वहाँ उपस्थित थे, सती की बात सनकर चुप रह गये। अपनी पुत्री के वेसे वचन सुनकर कुपित हुए दक्ष ने सती की ओर क्रूर दृष्टि से देखा और इस प्रकार कहा।
दक्ष बोले – भद्रे! तुम्हारे बहुत कहने से कया लाभ। इस समय यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है। तुम जाओ या ठहरो, यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। तुम यहाँ आयी ही क्यों? समस्त विद्वान जानते हैं कि तुम्हारे पति शिव अमंगल रूप हैं। वे कुलीन भी नहीं हैं। वेद से बहिष्कृत हैं और भूतों, प्रेतों तथा पिशाचों के स्वामी हैं। वे बहुत ही कुवेष धारण किये रहते हैं। इसीलिये रुद्र को इस यज्ञ के लिये नहीं बुलाया गया है। बेटी! मैं रुद्र को अच्छी तरह जानता हूँ। अतः जान-बूझकर ही मैंने देवर्षियों की सभा में उनको आमन्त्रित नहीं किया है। रुद्र को शास्त्र के अर्थ का ज्ञान नहीं है। वे उद्दण्ड और दुरात्मा हैं। मुझ मृढ़ पापी ने ब्रह्मजी के कहने से उनके साथ तुम्हारा विवाह कर दिया था। अतः शुचिस्मिते! तुम क्रोध छोड़कर स्वस्थ (शान्त) हो जाओ। इस यज्ञ में तुम आ ही गयी तो स्वयं अपना भाग (या दहेज) ग्रहण करो। दक्ष के ऐसा कहने पर उनकी त्रिभवन-पूजिता पुत्री सती ने शिव की निन्दा करनेवाले अपने पिता की ओर जब दृष्टिपात किया, तब उनका रोष और भी बढ़ गया।
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Shiv mahapuran episode 57 दक्ष के यज्ञ को किसने श्राप दिया ? shiv puran reading @sartatva
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शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय २७
दक्ष के द्वारा महान् यज्ञ का आयोजन, उसमें ब्रह्मा, विष्णु, देवताओं और ऋषियों का आगमन, दक्ष द्वारा सबका सत्कार, यज्ञ का आरम्भ, दधीचिद्वारा भगवान् शिव को बुलाने का अनुरोध और दक्ष के विरोध करने पर शिव-भक्तों का वहाँ से निकल जाना
ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! एक समय दक्ष ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आरम्भ किया। उस यज्ञ की दीक्षा लेकर उन्होंने उस समय समस्त देवर्षियों, महर्षियों तथा देवताओं को बुलाया। वे सभी उस यज्ञ में पधारे। अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भूगु, दधीचि, भगवान् व्यास, भारद्वाज, गौतम, पैल, पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुष, सित, सुमन्तु, त्रिक, कंक और वैशम्पायन – ये तथा दूसरे बहुसंख्यक मुनि अपने स्त्री-पुत्रों को साथ ले मेरे पुत्र दक्ष के यज्ञ में हर्षपूर्वक सम्मिलित हुए थे। इनके सिवा समस्त देवगण, महान् अभ्युदूयशाली लोकपालगण और सभी उपदेवता अपनी उपकारक सैन्य शक्ति के साथ वहाँ पधारे थे। दक्ष ने प्रार्थना करके सदल-बल मुझ विश्वस्रष्टा ब्रह्मा को भी सत्यलोक से बुलवाया था। इसी तरह भाँति-भाँति से सादर प्रार्थना करके वैकुण्ठ लोक से भगवान् विष्णु भी उस यज्ञ में बुलाये गये थे। शिवद्रोही दुरात्मा दक्ष ने उन सबका बड़ा सत्कार किया। विश्वकर्मा ने अत्यन्त दीप्तिमान्, विशाल और बहुमूल्य दिव्य भवन बनाये थे। दक्ष ने वे ही भवन समागत अतिथियों को ठहरने के लिये दिये। सभी लोग सम्मानित हो उन सम्पूर्ण भवनों में यथायोग्य स्थान पाकर ठहरे हुए थे। दक्ष का वह महायज्ञ उस समय कनखल नामक तीर्थ में हो रहा था। उसमें दक्ष ने भृगु आदि तपोधनों को ऋत्विज् बनाया। सम्पूर्ण मरूद्गणों के साथ स्वयं भगवान् विष्णु उसके अधिष्ठाता थे। मैं वेदत्रयी की विधि को दिखाने या बतानेवाला ब्रह्मा बना था। इसी तरह सम्पूर्ण दिक्पाल अपने आयुधों और परिवारों के साथ द्वारपाल एवं रक्षक बने थे और सदा कौतूहल पैदा करते थे। स्वयं यज्ञ सुन्दर रूप धारण करके दक्ष के उस यज्ञमण्डल में उपस्थित था। महामुनियों में श्रेष्ठ सभी महर्षि स्वयं वेदों के धारण करनेवाले हुए थे। अग्नि ने भी उस यज्ञमहोत्सव में शीघ्र ही हविष्य ग्रहण करने के लिये अपने सहस्त्रों रूप प्रकट किये थे। वहाँ अट्ठासी हजार ऋत्विज् एक साथ हवन करते थे। चौंसठ हजार देवर्षि उद्गाता थे। अध्वर्यु एवं होता भी उतने ही थे। नारद आदि देवर्षि और सप्तर्षि पृथक्-पृथक् गाथा-गान कर रहे थे। दक्ष ने अपने उस महायज्ञ में गन्धर्वों, विद्याधरों, सिद्धों, बारह आदित्यों, उनके गणों, यज्ञों तथा नागलोक में विचरनेवाले समस्त नागों का भी बहुत बड़ी संख्या में वरण किया था। ब्रह्मर्षि, राजर्षि और देवर्षियों के समुदाय तथा बहुसंख्यक नरेश भी उसमें आमन्त्रित थे, जो अपने मित्रों, मन्त्रियों तथा सेनाओं के साथ आये थे। यजमान दक्ष ने उस यज्ञ में वसु आदि समस्त गणदेवताओं का भी वरण किया था। कौतुक और मंगलाचार करके जब दक्ष ने यज्ञ की दीक्षा ली तथा जब उनके लिये बारंबार स्वस्तिवाचन किया जाने लगा, तब वे अपनी पत्नी के साथ बड़ी शोभा पाने लगे।
इतना सब करने पर भी दुरात्मा दक्ष ने उस यज्ञ में भगवान् शम्भु को नहीं आमन्त्रित किया। उनकी दृष्टि में कपालधारी होने के कारण वे निश्चय ही यज्ञ में भाग पाने योग्य नहीं थे। सती प्रजापति दक्ष की प्रिय पृत्री थीं तो भी कपाली की पत्नी होने के कारण दोषदर्शी दक्ष ने उन्हें अपने यज्ञ में नहीं बुलाया। इस प्रकार जब दक्ष का वह यज्ञ-महोत्सव आरम्भ हुआ और यज्ञ-मण्डप में आये हुए सब ऋत्विज् अपने-अपने कार्य में संलग्न हो गये, उस समय वहाँ भगवान् शंकर को उपस्थित न देख शिवभक्त दधीचि का चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और वे यों बोले।
दधीचिने कहा – मुख्य-मुख्य देवताओ तथा महर्षियो! आप सब लोग प्रशंसापूर्वक मेरी बात सुनें। इस यज्ञ-महोत्सव में भगवान् शंकर नहीं आये हैं, इसका क्या कारण है? यद्यपि ये देवेश्वर, बड़े-बड़े मुनि और लोकपाल यहाँ पधारे हैं, तथापि उन महात्मा पिनाकपाणि शंकर के बिना यह यज्ञ अधिक शोभा नहीं पा रहा है। बड़े-बड़े विद्वान कहते हैं कि मंगलमय भगवान् शिव की कृपादृष्टि से ही समस्त मंगल-कार्य सम्पन्न होते हैं। जिनका ऐसा प्रभाव है, वे पुराण-पुरुष, वृषभध्वज, परमेश्वर श्रीनीलकण्ठ यहाँ क्यों नहीं दिखायी दे रहे हैं? दक्ष! जिनके सम्पर्क में आने पर अथवा जिनके स्वीकार कर लेने पर अमंगल भी मंगल हो जाते हैं तथा जिनके पंद्रह नेत्रों से देखे जाने पर बड़े-बड़े नगर तत्काल मंगलमय हो जाते हैं, उनका इस यज्ञ में पदार्पण होना अत्यन्त आवश्यक है।
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Shaniwar ke upay totke शनिवार के उपाय टोटके shani doshalu @sartatva
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हर शनिवार को आटा, काले तिल, चीनी मिला लें. मिश्रण को अच्छी तरह तैयार कर लें. अब इस मिश्रण को चीटियों को खिलाएं. शनिवार के दिन तांबे के बर्तन में जल लेकर शिवलिंग पर चढ़ाना बहुत ही अच्छा माना जाता है.
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Success remedies on Friday शुक्रवार के चम्त्करी उपाय card consultation @sartatva
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शुक्रवार के दिन एक पीला कपड़ा लेकर उसमें पांच पीले रंग की कौड़ी, थोड़ा सा केसर तथा सिक्के डालें। इन सब को बांधकर उन्हें उन्हें अपनी तिजोरी में या गल्ले में रख दें। मां लक्ष्मी जल्दी प्रसन्न होगी।
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Shiv mahapuran episode 56 नंदी जी की किस श्राप के कारन ब्राह्मणों को दरिद्रता मिली? shiv @sartatva
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शिवपुराण - रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड - अध्याय २६
प्रयाग में समस्त महात्मा मुनियों द्वारा किये गये यज्ञ में दक्ष का भगवान् शिव को तिरस्कारपूर्वक शाप देना तथा नन्दी द्वारा ब्राह्मण कुल को शाप-प्रदान, भगवान् शिव का नन्दी को शान्त करना
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! पूर्वकाल में समस्त महात्मा मुनि प्रयाग में एकत्र हुए थे। वहाँ सम्मिलित हुए उन सब महात्माओं का विधि-विधान से एक बहुत बड़ा यज्ञ हुआ। उस यज्ञ में सनकादि सिद्धगण, देवर्षि, प्रजापति, देवता तथा ब्रह्म का साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानी भी पधारे थे। मैं भी मूर्तिमान् महातेजस्वी निगमों और आगमों से युक्त हो सपरिवार वहाँ गया था। अनेक प्रकार के उत्सवों के साथ वहाँ उनका विचित्र समाज जुटा था। नाना शास्त्रों के सम्बन्ध में ज्ञान-चर्चा एवं वाद-विवाद हो रहे थे। मुने! उसी अवसर पर सती तथा पार्षदों के साथ त्रिलोकहितकारी, सृष्टिकर्ता एवं सबके स्वामी भगवान् रुद्र भी वहाँ आ पहुँचे। भगवान् शिव को आया देख सम्पूर्ण देवताओं, सिद्धों तथा मुनियों ने और मैंने भी भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। फिर शिव की आज्ञा पाकर सब लोग प्रसन्नतापूर्वक यथास्थान बैठ गये। भगवान् का दर्शन पाकर सब लोग संतुष्ट थे और अपने सौभाग्य की सराहना करते थे। इसी बीच में प्रजापतियों के भी पति प्रभु दक्ष, जो बड़े तेजस्वी थे, अकस्मात् घूमते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आये। वे मुझे प्रणाम करके मेरी आज्ञा ले वहाँ बैठे। दक्ष उन दिनों समस्त ब्रह्माण्ड के अधिपति बनाये गये थे, अतएव सबके द्वारा सम्माननीय थे। परंतु अपने इस गौरवपूर्ण पद को लेकर उनके मन में बड़ा, अहंकार था; क्योंकि वे तत्त्वज्ञान से शून्य थे। उस समय समस्त देवर्षियों ने नतमस्तक हो स्तुति और प्रणाम के द्वारा दोनों हाथ जोड़कर उत्तम तेजस्वी दक्ष का आदर-सत्कार किया। परंतु जो नाना प्रकार के लीलाविहार करनेवाले, सबके स्वामी और उत्कृष्ट लीलाकारी स्वतन्त्र परमेश्वर हैं, उन महेश्वर ने उस समय दक्ष को मस्तक नहीं झुकाया। वे अपने आसन पर बैठे ही रह गये (खड़े होकर दक्ष का स्वागत नहीं किया)। महादेवजी को वहाँ मस्तक झुकाते न देख मेरे पुत्र प्रजापति दक्ष मन-ही-मन अप्रसन्न हो गये। उन्हें रुद्र पर सहसा क्रोध हो आया, वे ज्ञानशून्य तथा महान् अहंकारी होने के कारण महाप्रभु रुद्र को क्रूर दृष्टि से देखकर सबको सुनाते हुए उच्च स्वर से कहने लगे।
दक्ष ने कहा – ये सब देवता, असुर, श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा ऋषि मुझे विशेष रूप से मस्तक झुकाते हैं। परंतु वह जो प्रेतों और पिशाचों से घिरा हुआ महामनस्वी बनकर बैठा है, वह दुष्ट मनुष्य के समान क्यों मुझे प्रणाम नहीं करता? श्मशान में निवास करने वाला यह निर्लज्ज जो मुझे इस समय प्रणाम नहीं करता, इसका क्या कारण है? इसके वेदोक्त कर्म लुप्त हो गये हैं। यह भूतों और पिशाचों से सेवित हो मतवाला बना फिरता हैं और शास्त्रीय विधि की अवहेलना करके निति मार्ग को सदा कलंकित किया करता है। इसके साथ रहनेवाले या इसका अनुसरण करने वाले लोग पाखण्डी, दुष्ट, पापाचारी तथा ब्राह्मण को देखकर उद्दण्डतापूर्वक उसकी निन्दा करने वाले होते हैं। यह स्वयं ही स्त्री में आसक्त रहनेवाला तथा रतिकर्म में ही दक्ष है। अतः मैं इसे शाप देने को उद्यत हुआ हूँ। यह रुद्र चारों वर्णों से पृथक् और कुरूप है। इसे यज्ञ से बहिष्कृत कर दिया जाय। यह श्मशान में निवास करनेवाला तथा उत्तम कुल और जन्म से हीन है। इसलिये देवताओं के साथ यह यज्ञ में भाग न पाये।
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! दक्ष की कही हुई यह बात सुनकर भृगु आदि बहुत-से महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट मानकर देवताओं के साथ उनकी निन्दा करने लगे। दक्ष की बात सुनकर नन्दी को बड़ा रोष हुआ। उनके नेत्र चंचल हो उठे और वे दक्ष को शाप देने के विचार से तुरंत इस प्रकार बोले।
नन्दीश्वर ने कहा – अरे रे महामूढ़! दुष्टबुद्धि शठ दक्ष! तूने मेरे स्वामी महेश्वर को यज्ञ से बहिष्कृत क्यों कर दिया? जिनके स्मरणमात्र से यज्ञ सफल और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं, उन्हीं महादेवजी को तूने शाप कैसे दे दिया? दुर्बुद्धि दक्ष! तूने ब्राह्मणजाति की चपलता से प्रेरित हो इन रुद्रदेव को व्यर्थ ही शाप दे डाला है। महाप्रभु रुद्र सर्वथा निर्दोष हैं, तथापि तूने व्यर्थ ही उनका उपहास किया है। ब्राह्मणाधम! जिन्होंने इस जगत् की सृष्टि की, जो इसका पालन करते हैं और अन्त में जिनके द्वारा इसका संहार होगा, उन्ही इन महेश्वर रूप को तूने शाप कैसे दे दिया।
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Bhagwat geeta saar in hindi श्रीमद भगवत गीता सार bhagwat geeta @sartatva
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अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥
भावार्थ :
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए॥
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Tarot card reading in hindi | Card of the day | tarot card reading today | @sartatva
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Vat savitri vrat mantra वट सावित्री व्रत 2023 पूजा विधि vat savitri kab hai @sartatva
Vat savitri vrat mantra वट सावित्री व्रत 2023 पूजा विधि vat savitri kab hai @sartatva
ओम नमो ब्रह्मणा सह सावित्री इहागच्छ इह तिष्ठ सुप्रतिष्ठिता भव।
सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।
वट सावित्री व्रत 2023 शुभ मुहूर्त,amavasya 2023,वट सावित्री व्रत 2023 तिथि,jyeshtha amavasya 2023,कब है वट सावित्री व्रत 2023,कब है वट सावित्री व्रत 2023 तिथि,vat savitri vrat 2023 date time,वट सावित्री व्रत 2023 पूजा विधि,vat savitri 2023 date,mangalmay channel,vat amavasya 2023,वट सावित्री व्रत 2023,health tips,vat savitri vrat 2023,vat savitri vrat 2023 date,वट सावित्री पूजा 2023,vat savitri vrat 2022 date,2023 bargad amavas pooja vidhi,vat savitri 2023,vat savitri kab hai,वट सावित्री व्रत कब है,tree worship in india,bargad amavasya puja vidhi,traditional katha,vat purnima vrat,bargad pooja,वट सावित्री व्रत कैसे किया जाता है,vat savitri puja 2020,vat savitri puja samagri,bargad puja
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