ब्राह्मण-विरोध: सामाजिक न्याय के आवरण में एक पाश्चात्य मानसिक विकृति

1 month ago

आज के समय में ब्राह्मण-विरोध सिर्फ आलोचना नहीं रहा, बल्कि यह एक तरह का सांस्कृतिक प्रदर्शन बन गया है – जैसे कोई अपने ‘सद्गुण’ दिखा रहा हो। यह फैशन की तरह विश्वविद्यालयों, फिल्मों, राजनीति और ऑनलाइन एक्टिविज़्म में दिखता है।

“ब्राह्मणवादी” जैसे शब्दों का इस्तेमाल लोगों को नीचा दिखाने और उनकी इंसानियत मिटाने के लिए किया जाता है, ताकि पुरानी परंपराओं को बुरा और अत्याचारी बताया जा सके।

यह दुश्मनी भारतीय समाज के स्वाभाविक विकास का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक मानसिक बीमारी है, जो यूरोप के धार्मिक घावों की देन है।

यूरोप के इंडोलॉजिस्ट, जो कैथोलिक चर्च से दुखी थे, उन्होंने अपने डर और नफरत को ब्राह्मणों पर डाल दिया – उन्हें भारत के लालची और भ्रष्ट पादरियों की तरह दिखाया।

आज जो ब्राह्मण-विरोध देखने को मिलता है, वह किसी गहराई से निकला विचार नहीं, बल्कि एक लंबी वैचारिक प्रक्रिया का नतीजा है – जो यूरोप के सुधार युग से शुरू होती है, मिशनरी प्रचार और उपनिवेशकालीन सोच से होकर गुजरती है, और फिर मार्क्सवादी इतिहास व पहचान की राजनीति में उभरती है।

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